’जब हम सेला पास से तवांग की तरफ आगे बढ़े तो कच्चे रास्ते पर दोनों तरफ भारतीय सैनिकों की लाशें बिखरी पड़ी थीं। कुछ शव जले हुए थे, कुछ बिना जले भी। कुत्ते, चील और बाकी पक्षी उन्हें खा रहे थे, या खा चुके थे। सेला से जसवंतगढ़ तक कई किलोमीटर तक यही हाल था। युद्ध खत्म हुए और चीनी सेना को लौटे 5 महीने गुजर चुके थे, इन लाशों को लेने कोई नहीं आया था।’
73 साल के तुतुन थून ये बताते हुए आज भी कांपने लगते हैं। आगे कहते हैं- ’हमने उन लाशों को इंडियन आर्मी के बूटों को देखकर पहचाना था। भारतीय सिपाही लेदर बूट पहनते थे, जिनकी सोल में लोहा लगा रहता था।
चीन के सैनिकों ने जीत का जश्न मनाने के नाम पर हमारे कुत्तों, बकरियों, बंदर और घोड़ों को काटकर खा लिया था। वे जाते वक्त तवांग से बुमला तक लगे टेलीफोन के तार और भारतीय सेना के एक हेलीकॉप्टर के पार्ट्स भी चोरी कर ले गए थे।’
तुतुन फिर सवाल करते हैं- ’चीन 22 दिन में यहां से चला गया था। आखिर इन लाशों को ऐसे क्यों छोड़ा गया और इन्हें लेने आखिर कोई क्यों नहीं आया? मैं कई साल तक इस बारे में सोचता रहा, आज भी सोचता हूं।’
9 दिसंबर 2022 को तवांग बॉर्डर पर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हुई मुठभेड़ का मामला अब ठंडा होता नजर आ रहा है, लेकिन तुतुन थून अब भी चीन को लेकर आशंकित हैं। चीन की युद्ध नीति को समझने वालों ने भी चेतावनी दी है कि 1962 की तरह ही चालबाजी के जरिए चीन युद्ध छेड़ने की फिराक में है।
तवांग के लोगों को वो युद्ध और चीनी सेना की क्रूरता अब भी याद है। लोग बताते हैं कि चीनी सैनिक भारतीयों को ’दाढ़ी वाले भूत’ कहते थे।
आज भी तवांग को याद हैं 1962 के जख्म
तकरीबन 60 साल पहले चीन ने न सिर्फ भारत को हराया था, बल्कि उसके सैनिक बॉर्डर पार कर तेजपुर तक पहुंचने में कामयाब रहे थे। उन्होंने इस पूरे इलाके में जमकर तबाही भी मचाई थी। भारतीय सैनिकों ने आखिरी सांस तक जंग लड़ी, लेकिन भीषण सर्दी, हथियारों और अनुभव की कमी ने उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
मैं झड़प के बाद बॉर्डर का माहौल पता करने के लिए 16 दिसंबर 2022 को तवांग पहुंचा। इस झड़प से 1962 की जंग देख चुके लोगों के जख्म एक बार फिर हरे हो गए हैं। मेरी मुलाकात जमघर के रहने वाले 73 साल के तुतुन थून से हुई। तुतुन सशस्त्र सीमा बल (SSB) से रिटायर्ड हैं। चीन ने जब भारत पर हमला किया था, तब वे सिर्फ 13 साल के थे।
तुतुन थून से सुनिए, जब चीनी आए तो तवांग का क्या हाल था
तुतुन बताते हैं- ’1962 में अक्टूबर का महीना था और तवांग में ठंड पड़नी शुरू हो गई थी। मैं अपने पिता के साथ धान के खेत में काम कर रहा था। मेरा पड़ोसी दौड़ते हुए आया और बताया कि चीन बोमिल पास होते हुए तवांग में घुस आया है। गोलीबारी होने लगी तो हमने तय किया कि खेतों में रुकना ठीक नहीं। तवांग में रुकना खतरनाक था, इसलिए करीब 900 गांववाले एक जगह जमा हुए और हम भूटान बॉर्डर के लिए पैदल चल दिए।
हम कुछ किलोमीटर दूर चखतम के पास थे और हमारा सामना चीन के सैनिकों से हो गया। वे लाइन से हाथों में हथियार लेकर जा रहे थे। सैनिकों की तादाद देख यह तय था कि लाल कपड़े (लामा की ड्रेस) से नफरत करने वाला चीन अब बुद्ध की धरती पर कब्जा करने वाला है। इसके बाद हम छोटे-छोटे ग्रुप बना कर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे।’
रास्ते में भारतीय सैनिक मिले तो हमने उन्हें साथ छुपा लिया, चीनी मार डालते
तुतुन कहानी सुनाते-सुनाते भटक जाते हैं, लेकिन फिर सुनाना शुरू करते हैं- हम थोड़ा आगे बढ़े तो भारतीय सेना के कुछ जवान नजर आए। हमें पता था कि अगर चीनी सैनिकों ने उन्हें देख लिया तो वे उन्हें मार डालेंगे।
चीन के सैनिक आम लोगों पर ज्यादा हमला नहीं कर रहे थे, लेकिन भारतीय सैनिकों की क्रूरता से हत्या कर रहे थे। हमने उन्हें खाना दिया और कपड़े दिए। उनकी बंदूकों को भी छिपा लिया और काफिले में शामिल कर लिया। वे भी ग्रामीण बन हमारे साथ भूटान के लिए पैदल चल पड़े। तकरीबन 5 दिन बाद हम चखतम (भूटान बॉर्डर) में थे।
22 दिन तक खुले में सोते रहे, पेड़ों पर भूखे-प्यासे बैठे थे सेना के जवान
तुतुन आगे बताते हैं- ‘हमने बॉर्डर पर ही रुकना सही समझा। हमें यहां से चीन की गोलीबारी साफ नजर आ रही थी। तोप के गोले हमारे ऊपर से जा रहे थे। भीषण ठंड थी, लेकिन खुले में सोने को मजबूर थे। ठंड से बचने के लिए हम पत्थर की आड़ ले लेते थे।
धीरे-धीरे बॉर्डर पर चारों तरफ से भाग कर आए लोग जमा होने लगे। हम तकरीबन 22 दिन तक ऐसे ही खुले में रहे। इस दौरान भारतीय सेना के जवान में हमारे साथ ग्रामीण बन कर रह रहे थे। इसके बाद हमें यह पता चला कि चीन बोमडिला तक आ गया है। हमने यहां से आगे बढ़ना ठीक समझा।
घने जंगल पार कर हजारों लोग बलमा पहुंचे। वहां हमें कुछ और इंडियन आर्मी के लोग मिले। उनके पास न खाने को कुछ था और न ही ठंड से बचने के लिए कपड़े थे। हमने उनसे कहा कि वे भी हमारे साथ चलें, उन्होंने पहले आनाकानी की, लेकिन फिर साथ चल दिए। हम जो खाते उन्हें भी खिलाते थे। रास्ते में सेना के कई जवान हमें पेड़ पर भूखे-प्यासे बैठे हुए नजर आए।’
चीन लौट गया, लेकिन तवांग को लाशों का ढेर बना दिया
तुतुन बताते हैं- ’कई दिन पैदल चलने के बाद हम असम के बॉर्डर यानी जोगतिन पहुंचे। वहां हमारी मदद के लिए इंडिया का हेलीकॉप्टर आया। उन्होंने हमारे लिए खाने के पैकेट गिराए। इसके बाद हम एक आर्मी कैंप पहुंचे और वहां आर्मी वालों ने हमें खाना खिलाया। हमारे साथ चल रहे सैनिक अब वापस सेना की बटालियन में शामिल हो चुके थे। वहां कुछ दिन रहने के बाद हम असम के मंगलदेव चले गए। वहां हम खेतों में काम करते और बदले में हमें कुछ पैसे मिलते थे।
हमने इंडियन आर्मी से घर लौटने का कहा तो उन्होंने हमें अपने वनटन (आर्मी की ट्रांसपोर्ट व्हीकल) में बैठाया और रूपा ब्रिज के पास छोड़ दिया। यहां से हम तवांग के लिए पैदल चल पड़े। सेला से तवांग तक भारतीय सैनिकों की लाशें बिखरी थीं, चीनियों की बर्बरता हमारी आखों के सामने थी।’
तवांग में बिखरी लाशों के पीछे भी थी चीन की चाल तुतुन के इस बयान की पुष्टि युद्ध के प्रत्यक्षदर्शियों से बातचीत के बाद लिखी किताब ’1962 व्हेन द माउंटेन्स क्राइंग’ में भी होती है। फिलहाल तवांग के डायरेक्टर ऑफ इनफॉर्मेशन एंड पब्लिक रिलेशन शुरमो नगवांग चोइडार्क ने इस किताब में चीनी युद्ध के दौरान की घटनाओं के बारे में लिखा है।
इसमें बताया गया है कि तवांग जाने वाले कच्चे रास्ते पर कई किलोमीटर तक सड़े-गले और जलाए गए शव पड़े थे। किताब के मुताबिक, सबसे ज्यादा भारतीय सैनिक न्यूकमडुंग और चाकू में शहीद हुए थे।
लालच देकर तवांग के लोगों को साथ मिलाना चाहता था चीन
1962 की जंग देखने वाले 71 साल के लामा ताशी बताते हैं- ’चीन के सैनिक गोलाबारी करते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, पीछे-पीछे सड़क भी बनाते जा रहे थे। उनकी प्लानिंग भारी तादाद में फोर्स को भारत में दाखिल करवाना भी था।
तवांग पर हमले के बाद उन्होंने स्थानीय लोगों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया। वे कहते थे कि हमारे और उनके चेहरे एक जैसे हैं और हम आपस में भाई-बहन हैं। इंडियन दाढ़ी वाले भूत हैं, इसलिए उन्हें उनके साथ आ जाना चाहिए। चीन के सैनिक कहते थे कि हमसे डरने की जरूरत नहीं है।’
तवांग में जंग के दौरान मौजूद रहे 80 साल के तिशो कामा बताते हैं- ’तवांग को मैंने अपने पसीने से बसाया है। चीन ने जब हमला किया तो यहां जंगल हुआ करता था। उसके फायर किए गोले मेन बाजार में गिरते थे। चीनी हमले के बाद मैं कई दिनों तक अपने पिता और परिवार के साथ जंगल में भूखे-प्यासे छिपा रहा। चीन के जाने के बाद हमने इस शहर में आपस में मिलकर पहले रोड बनाया।’
शुगर और नमक का लालच देते, खेत में साथ काम करते थे चीनी सैनिक
तवांग में स्थित देश के सबसे बड़े बौद्ध मठ में मेरी मुलाकात तोंके उरु से हुई। 1962 के दिनों को याद करते हुए तोंके ने बताया- ’अक्टूबर के आखिर में चीन ने जिमीतांग पर हमला किया था। भारतीय सेना उस समय कमजोर थी और संख्या भी कम थी। चीन के सैनिक रात-दिन पैदल चलते हुए आगे बढ़ रहे थे। वे हमें कुछ नहीं कहते थे, वे कहते थे कि नाले में छिप जाओ तो जान बच जाएगी। हमें बाद में पता चला कि दीरम में चीन के सैनिकों ने हमारे जवानों को घेर कर मारा था।’