समय की मार: कभी बोलती थी तूती, आज पुरसाहाल नहीं – खुद के मकड़जाल में जकड़ा बीएसएनल, सरकारी उदासीनता का शिकार
फतेहपुर। सत्तर अस्सी के दशक में अपने उरूज को हासिल करने वाला बीएसएनल का टेलीफोन युग और उसका कार्यालय अब सरकारी उदासीनता का शिकार है। विभाग के पास कहने को तो विशाल कार्यालय है लेकिन जर्जर हो चुका यह भवन देखने में किसी पुरानी भुतहा हवेली से कम नहीं लगता। शासन की ओर से भले ही मेंटीनेंस के नाम पर हर वर्ष कागज़ों में धन मिला हो लेकिन विशाल भवन को देखकर वर्षों से रंग रोगन से दूर रहने का अंदाज़ा लगया जा सकता है। लोगों की माने पर वर्ष 1970-80 के दशक में टेलीफोन युग के उरूज पर होने से विदेशों में रहने वाले नाते-रिश्तेदारों की आवाज़ सुनने के लिये बीएसएनएल के एक अदद नये कनेक्शन लगवाने के लिये बड़े बड़े रसूखवाले विभाग के चक्कर लगाया करते थे। कनेक्शन हासिल करना आसान न होता था। अगर किसी माननीय की चिट्ठी मिल गयी तो भले ही छह माह में नंबर आ सकता था। बीएसएनएल का फोन दूर दराज बैठे रिश्तेदारों की आवाज़ सुनने व रसूख का दिखावा करने का एक बड़ा माध्यम हुआ करता था। समय बदला तो बीसवीं सदी के साथ मोबाइल के युग ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिये। शहर मुख्यालय में बीएसएनएल के लगे टावर शहर की शान समझे जाने लगे थे। धीरे धीरे ग़ांव तक पैर पसारने के बाद बीएसएनल ने एक्सल नाम से जो मोबाइल सेवा शुरू की और एक बार फिर से विभाग की शान ओ शौकत बरकरार थी। कार्पाेरेट दफ्तर की तर्ज पर बने बीएसएनएल कार्यालय का जलवा देखते ही बनता था। सुबह से लेकर शाम तक पोस्टपेड मोबाइल, टेलीफोन, फैक्स और पीसीओ तक के बिल जमा करने वालो की लाइन लगा करती थी। कनेक्शन कटने के डर से अपना बिल जल्द से जल्द जमा करने की होड़ रहती थी। टेलीफोन हो या मोबाइल युग की शुरुआत बीएसएनल की तूती बोला करती थी। बीएसएनएल के टेलीफोन कनेक्शन की तरह ही मोबाइल युग की शुरुआत में बीएसएनएल का मोबाइल सिम पाना भी कोई आसान नहीं था। एक साल या इससे भी अधिक वेटिंग के बाद लोगों को एक्सल सेवा का लाभ मिला। स्टेटस सिंबल समझे जाने वाले मोबाइल का कनेक्शन हासिल करने के बाद लोग वीआईपी श्रेणी की फीलिंग का आनंद उठाते थे। निजी कंपनियों की आमद के बाद आसानी से मोबाइल सिम मयस्सर होते होते बीएसएनएल का रसूख भी धीमा पड़ने लगा। पहले जहां अपने टेलीफोन का टूटा तार भी सही करवाने के लिये लोगों को कर्मियों की मिन्नते करनी पड़ती थी और नज़राना भी पेश करना पड़ता था। निजी कंपनियों की मोबाइल सुविधा मिलते ही लोगों का टेलीफोन से मोह भंग होने लगा। सूचना क्रांति के बाद थ्रीजी सेवा व डब्लू एलएल के ज़रिए ग्रामीण इलाको में अपनी उपस्थिति बनाई और ब्राड बैंड सेवा के नाम पर खुद को स्थापित रखने की दिशा में एक कदम बढ़ाया। निजी कम्पनियों की दरों सुविधाओ के आगे सरकारी उदासीनता हावी होने लगीं और धीरे धीरे बीएसएनएल पिछड़ता चला गया। अब भी वही कार्यालय है लेकिन लोगों की भीड़ नदारत है। कभी चहल पहल रहने वाले कार्यालय में आज जगह जगह गंदगी की भरमार, टूटा फर्नीचर और चटकी हुई दीवारे अपने खुशहाल युग की यादें समेटे नज़र आती है। कोने में सिमटे हुए कर्मी नीचे कक्ष में बैठकर आधार कार्ड का काम करते हुए नज़र आते है जबकि ऊपरी कमरे में कुछ जगह ब्राड बैंड व मोबाइल से संबंधित ज़िम्मेदारी का निर्वाहन करने वाले कर्मी व अफ़सर नज़र आते है। विभाग की हालत पर पूछने पर अपनी नौकरी की मजबूरी बताकर आन कैमरा बोलने से कतराते हैं लेकिन कभी सुर्खियो में रहने वाला विभाग की ऐसी दुर्दशा खुद ही सरकारी उदासीनता बयान कर ही देती है।