लोकतंत्र की हत्या सत्ताधारी दल के लिए शब्द बहुत लोकप्रिय हुए हैं इमरजेंसी या आपातकाल

 

 

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के कारण यह शब्द आज हर गाँव कस्बे तक पहुँच गया है। भले ही  उन्हें आपातकल के बारे में सही जानकारी नहीं हो।

 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की समाप्ति, बांग्लादेश की आजादी जैसे कामों के बावजूद ऐसा क्या हुआ जो देश के लोकप्रिय नेता के मन में डर बैठ गया और उन्हें आपातकाल लगाना पड़ा। 12 जून, 1975 को इलाहबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा एक फैसला सुनाया जाता है, यह कोई आम फैसला नहीं था, इसने सत्ता के गालियारों में खलबली मचा दी थी। यह देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के खिलाफ सुनाया गया ऐतिहासिक फैसला था। इस फैसले ने यह साबित कर दिया कि न्यायलय सबके लिए समान है इंदिरा गाँधी को अदालत में रायबरेली लोकसभा सीट में धांधली का दोषी करार दिया था। उच्य न्यायलय ने अपना फैसला सुनाते हुए चुनाव को रद्द कर दिया तथा जन प्रतिनिधि कानून के तहत 6 साल तक चुनाव लड़ने के लिए

अयोग्य ठहरा दिया था। इसी के ठीक 13 दिन बाद 25 जून, 1975 को भारतीय संविधान का अनुच्छेद 352

का प्रयोग करते हुए देश में आपातकाल की घोषणा की गई।

हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ इंदिरा गाँधी सुप्रीम कोर्ट गई, 24 जून को कोर्ट ने उन्हें आंशिक राहत दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि वह सदन की कार्यवाही में भाग ले सकती हैं, लेकिन वोटिंग में शामिल नहीं हो सकती। इन सबके बीच पूरे देश में उग्र आंदोलन शुरू हो गया। देश की नजर बिहार पर लगी हुई थीं, क्योंकि बिहार में यह आंदोलन लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में अपने चरम पर था। 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की रैली में उन्होंने इंदिरा गाँधी पर लोकतंत्र का गला घोटने का आरोप लगाया और दिनकर की कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का नारा बुलंद किया। जयप्रकाश ने विद्यार्थियों सैनिकों और पुलिस वालों को सरकार के आदेश को ना मानने के लिए आह्वान किया।

21 महीने के अपातकाल के दौरान सरकार द्वारा दमनकारी नीति चलाई गई। उस समय आंदोलन के नायक जयप्रकाश नारायण को बीमार अवस्था में भी जेल में बंद कर दिया गया आपातकाल के दौरान 1975 में कांग्रेस अध्यक्ष देव कति बरुआ ने नारा दिया था इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा (इंदिरा भारत हैं और भारत इंदिरा है। यह कथन उस महिला के लिए कहा गया था जिसे कभी कामराज की कठपुतली या गूंगी गुड़िया कहा जाता था। आपातकाल के दौरान समाचार पत्र लोगों के लिए एकमात्र माध्यम था। हजारों पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया। उस समय के तत्कालिक सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने जब संजय गाँधी के आदेश को मानने मना कर दिया तो उन्हें कैबिनेट से बाहर निकाल दिया गया। संजय गाँधी के आदेश पर देश भर में नशबंदी कार्यक्रम की शुरुआत युद्ध स्तर पर हुई, जिसमें कांग्रेस कार्यकर्ता को नसबंदी करवाने का लक्ष्य दिया जाता था। आम आदमी को संविधान से मिलने वाली मौलिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया और इसके हजारों स्वयंसेवक को जेलों में बंद कर दिया गया। सन 1975 तक इंदिरा जी की सरकार और उनकी सोच उत्तरोत्तर असहिष्णु और दमनात्मक नीतियों को अनुसरण करने वाली हो गई इसलिए जनांदोलनों तथा देश को स्थिर करने की गतिविधियों द्वारा सत्ताधारियों को देखा गया। सरकार द्वारा देशतोड़क गति अर्थात दमन का रास्ता अपना लिया गया। 1976 ई. में लगभग 35000 लोगों को जेल भेजा गया और इसके अतिरिक्त जन आंदोलन के तहत 65,000 सत्याग्राहियों को भी जेल में बंद किया गया। इन पर अस्थिरकारी, देशतोड़क आरोप भी लगाए गए।

लोकतंत्र में जनता सर्वोपरी होती है, इस बात को इंदिरा गाँधी को मानना पड़ा। 21 मार्च, 1977 को आपातकाल हटा लिया गया और आपातकाल खत्म होते ही चुनाव की घोषणा हुई, जिसका खामियाजा इंदिरा गाँधी को भुगतना

पड़ा। इंदिरा गाँधी अपनी सीट से चुनाव हार गई। कांग्रेस को दिल्ली, बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा में एक सीट भी नहीं मिली। केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई बने। आज के समय में भारत जैसे पूज्य और सार्वभौमिक लोकतंत्र में कोई भी यदि इमरजेंसी जैसी परिस्थिति की बात करते हैं तो वह भूल जाते हैं कि वो उसी आंदोलन से निकल कर आज माननीय बने हैं। समाज में फैले तनाव और कई स्थानों पर खड़े हुए कानून व्यवस्था के प्रति समाधान के रूप में कुछ लोग आपातकाल लगना चाहिए ऐसी भी उड़ी उड़ी बातें करते हैं। अब विडंबना यह है कि उनमें से कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने _1975-77 का आपातकाल भुगता है। अतः हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि आपातकाल के खिलाफ संघर्ष ने सिद्ध किया है कि शांति पूर्ण आंदोलनों के द्वारा तानाशाही सत्ता को भी अपदस्थ किया जा सकता है। वर्तमान सत्ताधारी दल के सपने में भी यदि यह ख्याल आता है तो वह उनके लिए बहुत खतरनाक है। विचार करने योग्य यह है कि चुनाव से पहले जिस व्यवस्था परिवर्तन की बात की जाती है क्या वह सत्ता में आने के बाद व्यवस्था परिवर्तन हुए हैं? या केवल सत्ता बदली है।

सपना तिवारी

पी. एच डी (हिंदी)

दिल्ली विश्वविद्यालय

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