जापान ने समुद्र में रेडियोएक्टिव पानी छोड़ना शुरू किया, इससे क्यों डरे चीन-साउथ कोरिया के लोग?

 

विदेश:  जापान ने समुद्र में फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट का रेडियो एक्टिव पानी पैसिफिक महासागर में छोड़ना शुरू कर दिया। जापानी समय के मुताबिक दोपहर 1:03 बजे ये प्रोसेस शुरू किया गया। जापान टाइम्स ने बताया है कि पहले दिन करीब 2 लाख लीटर पानी छोड़ा जाएगा। इसके बाद इसे बढ़ाकर 4.60 लाख लीटर कर दिया जाएगा।

 

न्यूक्लियर प्लांट को मेंटेन करने वाली कंपनी TEPCO ने बताया कि सबसे पहले सैंपल के तौर पर शुरुआती टैंक से थोड़ा पानी छोड़ा गया। इसके पहले और बाद में सभी कंडीशन्स चेक की गईं। इसमें कोई गड़बड़ी नजर नहीं आई। प्लांट से पानी को रिलीज करने वाला पंप 24 घंटे एक्टिव रहेगा।

 

12 साल पहले 2011 में आए भूकंप और सूनामी की वजह से फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट में भयानक विस्फोट हुआ था। इसके बाद से ही वहां 133 करोड़ लीटर रेडियोएक्टिव पानी जमा है। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक वहां जमा पानी करीब 500 ओलंपिक साइज स्विमिंग पुल के जितना है। जैसे ही जापान ने इस पानी को समुद्र में मिलाने की बात कही, चीन और दक्षिण कोरिया के लोग डरे हुए हैं।

 

11 मार्च को 3 बजकर 42 मिनट पर जापान में 9.1 तीव्रता का भूकंप आया। इससे समुद्र की परत खिसकने से सुनामी आ गई। भूकंप के झटके महसूस होते ही फुकुशिमा में समुद्र किनारे बने न्यूक्लियर प्लांट के रिएक्टर बंद कर दिए गए। रिएक्टर की कूलिंग के लिए जनरेटर स्टार्ट कर दिए गए। इमरजेंसी जनरेटर गर्म रिएक्टर को ठंडा कर पाता, इससे पहले ही पानी प्लांट में घुस आया।

 

इसके बाद इमरजेंसी जेनरेटर बंद हो गया जिससे गर्म रिएक्टर पिघलने लगा। कुछ देर बाद न्यूक्लियर पावर प्लांट में भयानक विस्फोट होने लगे। आने वाले कई महीनों तक न्यूक्लियर रिएक्टर्स में चेन रिएक्शन होने से रोकने के लिए उसे 133 करोड़ लीटर समुद्र के पानी से ठंडा रखा गया।

 

इससे पानी में 64 तरह के रेडियोएक्टिव मटेरियल घुल गए। इनमें कार्बन-14, आयोडिन-131, सीजियम- 137, स्ट्रोनटियम-90 कोबाल्ट , हाइड्रोजन-3 और ट्राइटियम ऐसे एलिमेंट्स हैं, जो इंसानों के लिए हानिकारक हैं।

 

इनमें से ज्यादातर रेडियोएक्टिव मटेरियल्स की लाइफ काफी कम होती है। इससे इनका असर खत्म हो चुका है। हालांकि, कार्बन-14 जैसे कुछ मटेरियल हैं जिसका असर कम होने में 5 हजार साल लगते हैं। इसके अलावा न्यूक्लियर रिएक्टर पानी में अभी भी ट्राइटियम के कण मौजूद हैं।

 

रेडियोएक्टिव पाना छोड़े जाने पर चीन साउथ कोरिया को डर है कि ये सी फूड यानी मछली, क्रैब और समुद्री जीवों के जरिए इंसानों के शरीर तक पहुंच सकता है। ट्राइटियम के स्किन पर गिरने से नुकसान नहीं होता, लेकिन शरीर में घुसने से कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। हांगकांग और चीन ने तो जापान से सी फूड इंपोर्ट करने पर ही पाबंदी लगा दी है। वहीं, साउथ कोरिया की स्टु़डेंट यूनियन ने सियोल में जापान की दूतावास में घुसपैठ करने की कोशिश की। कई छात्रों को हिरासत में लिया गया है। चीन ने कहा है कि जापान ने मंसूबों ने दुनिया को खतरे में डालने का काम किया है।

 

समुद्र में रेडियोएक्टिव पानी रिलीज करने के प्लान को UN की एटॉमिक एजेंसी IAEA अप्रूव कर चुकी है। रेडियोएक्टिव मटेरियल को रिलीज करने के लिए ALPS प्रोसेस से होकर गुजरना पड़ता है। इसके प्रोसेस को पूरा करने के बाद ही रेडियोएक्टिव पानी को समुद्र में छोड़ा जा रहा है। एक हजार टैंक्स से रखे पानी को एक साथ नहीं बल्कि 30 साल तक रिलीज किया जाएगा। रोज 5 लाख लीटर रेडियोएक्टिव पानी समुद्र में मिलाया जाने का लक्ष्य रखा है।

 

अलजजीरा की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि समुद्र में इसका असर कम हो। फिलहाल जिस इलाके में पानी छोड़ा जाएगा वहां से 3 किलोमीटर तक के इलाके में मछली पकड़ने पर रोक लगा दी गई है।

 

एक वैज्ञानिक रिचमोंड ने साइंस के मुद्दों को कवर करने वाली वेबसाइट नेचर को बताया कि 3 किलोमीटर के दायरे में मछली पकड़ने पर रोक लगाने से कुछ नहीं होगा। इसकी वजह समुद्री जीवों का लंबी दूरी तय करना है। इस इलाके की मछलियों को दूसरी बड़ी मछलियां खाएंगी जो समुद्र में दूर तक जाती हैं। अगर ये मछली सी फूड कंपनियों के जरिए आम लोगों तक पहुंचाएंगी तो रेडियोएक्टिव पार्टिकल्स इंसान के शरीर में आसानी से जा सकते हैं।

 

रिचमोंड के मुताबिक इस रेडियोएक्टिव पानी का असर कब तक रहेगा इसे बता पाना काफी मुश्किल है। इसका असर लंबे समय तक भी रह सकता है। वहीं, स्वीडन में न्यूक्लियर केमिस्ट्री के प्रोफेसर मार्क फोरमेन का कहना है कि समुद्री जीवों पर रेडिएशन का असर काफी कम होगा, इसमें पाबंदियां लगाने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए।

 

जापान के टोकाईमुरा न्यूक्लियर प्लांट में आज से 20 साल पहले एक हादसा हुआ। इस हादसे में वहां काम करने वाला एक टेक्निशियन दुनिया का सबसे ज्यादा रेडिएशन से संक्रमित इंसान बन गया था। इस व्यक्ति का नाम हिसाशी ओउची था, जिसकी उम्र 35 साल थी।

 

एक रोज हिसाशी अपने एक साथी को न्यूक्लियर प्लांट में यूरेनियम डालने में मदद कर रहा था। आमतौर पर न्यूक्लियर प्लांट में यूरेनियम को डालने के लिए हाइड्रोलिक पंप का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यहां कम खर्च के लिए हिसाशी और उसके साथियों को हाथ से यूरेनियम डालने के निर्देश थे। उसकी एक गलती से वहां न्यूट्रॉन रेडिएशन और गामा किरणें फैल गईं। इसके बाद उसे शरीर में जलन महसूस हुई, उल्टी और सांस लेने में तकलीफ हुई।

 

हिसाशी को तुरंत यूनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के अस्पताल ले जाया गया। उसकी जांच करने के बाद डॉक्टर्स हैरान रह गए जब उन्हें पता चला कि हिसाशी की बॉडी में व्हाइट ब्लड सेल्स ही नहीं बचे हैं। व्हाइट ब्लड सेल्स ही इंसानों के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखते हैं।

 

रेडिएशन की वजह से उसका शरीर जल चुका था। उसकी आखों से खून बह रहा था। इलाज के दौरान डॉक्टर्स को पता चला कि हिसाशी 1700 रैम के बराबर रेडिएशन से संक्रमित हुआ है। यह रेडिएशन किसी इंसान को मारने के लिए जरूरी रेडिएशन से दोगुना है।

 

डॉक्टर्स उसे ब्लड ट्रांसफ्यूजन और स्टेम सेल देकर जिंदा रखे हुए थे, पर इससे उसकी तकलीफ हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती जा रही थी। वह लगातार चिल्लाता था कि वह स्टेम सेल को और नहींं ले सकता है, वह कोई एक्सपेरीमेंट की चीज नहीं है।

 

अस्पताल में भर्ती होने के 59वें दिन उसे 3 हार्टअटैक आए पर हर बार डॉक्टर्स ने उसे बचा लिया। आखिरकार 83वें दिन उसकी मौत हो गई। उसके शरीर के सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया गया था।

 

अमेरिका ने साल 1946 से 1958 तक प्रशांत महासागर के मार्शल आइलैंड में 67 न्यूक्लियर टेस्ट किए थे। न्यूक्लियर टेस्ट के कारण 31 लाख क्यूबिक फीट रेडियोएक्टिव मिट्टी और मलबा तैयार हुआ जिसे रूनिट आईलैंड में एक डोम में भरा गया है।

 

न्यूक्लियर टेस्ट के कारण द्वीपों में बड़े-बड़े गड्ढे बन गए हैं। 2012 में आई UN की एक रिपोर्ट के मुताबिक टेस्टिंग का असर अब भी बाकी है। मार्शल आइलैंड के लोगों में रेडिएशन के कारण कैंसर और जन्मजात बीमारियां हो रही हैं। यहां के लोगों में आत्महत्या की दर और नशे की लत बढ़ रही है।

 

जो इनके लिए एक परेशानी का कारण बनी हुई है। यहां कई एक्टिविस्ट अपनी आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मार्शल की एक महिला काउंसलर लेनी क्रेमर बताती हैं कि न्यूक्लिर टेस्ट के कारण वहां लोगों को बड़ी तादाद में घर छोड़ना पड़ा। इसके उनका कल्चर, पारंपरिक रीति रिवाजों जो हजारों सालों से पीढ़ियों की पहचान थी, वो खो गई।

 

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