बुंदेलखंड के गांव गांव में विद्यमान है परंपरा
सुमेरपुर। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा शुरू की गई तर्पण की प्रथा को बुंदेलखंड में कन्याएं आज भी जीवंत किए हैं। यह शाम के समय गीत गाते हुए नदी सरोवर में पुष्प अर्पित करके नवजातों की मृत्यु को तर्पण करती हैं। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के जन्म के उपरांत आपाचारी कंस के दूतों ने मथुरा सहित आसपास के सैकड़ो गांव में नवजातों का वध किया था। जन्म के 13 वर्ष बाद मामा कंस का वध करने के बाद उन्होंने सभी नवजातों की मुक्ति के लिए कालिंदी में पुष्पों से तर्पण किया था। उन्होंने संदेश दिया था कि इस प्रक्रिया से असमय काल के गाल में सामने वाले नवजातों को मुक्ति मिलेगी। भगवान श्रीकृष्ण की इस तर्पण प्रक्रिया को बुंदेली धरा में कन्याएं आज भी जीवंत किए हैं। प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक कन्याएं प्रतिदिन शाम के समय कांटेदार झाड़ी में फूलों को पिरोकर नदी सरोवरों में जाकर विसर्जित करती हैं। यह परंपरा बुंदेलखंड में महाबुलिया के नाम से आज भी गांव-गांव विद्यमान है। अमावस्या को अंतिम तर्पण बड़े ही विधि विधान के साथ किया जाता है। जिसमें विभिन्न तरह के व्यंजनों, मेवा मिष्ठानों के साथ तरह-तरह के फूलों से महाबुलिया को सजाकर गाते बजाते तर्पण को ले जाती है। प्रतिपदा के दिन लाई गई कटीली झड़ी को फूलों सहित अमावस्या को तर्पण कर विसर्जित किया जाता है। विदोखर पुरई की शकुंतला देवी बताती है कि महाबुलिया को सजाते समय तरह तरह के गीत कन्याएं गाती है। जिनमें लावा लावा गुलाब कनेर के फूल, सजईएं अच्छी महाबुलिया। कस्बा निवासी मुन्नीलाल अवस्थी बताते हैं कि कंस वध के बाद कंस व उसके दूतों द्वारा बेकसूर मारे गए नवजातों का तर्पण भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना नदी में पुष्पों से करके यह संदेश दिया था कि इस प्रक्रिया से उन आत्माओं को तर्पण हो जाएगा। जिन्होंने जन्म तो इस धरा पर लिया। लेकिन उन्हें जीने का अवसर नहीं मिल सका। इस परंपरा को बुंदेलखंड के हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, महोबा, छतरपुर, टीकमगढ़, सतना, पन्ना, सागर, दमोह, दतिया, भिंड, मुरैना, झांसी, ललितपुर, जालौन आदि जनपदों में आज भी कन्या जीवंत किए हुए हैं।