नीतीश कुमार के अंदाज़-ए-बयाँ में उलझे लोग

अगर बयान करने का तरीक़ा बेहतर न हो तो एक अहम और ज़रूरी बात विवादों की भेंट चढ़ जाती है. वह बात शोर-शराबे में ग़ुम हो जाती है. इसका ताज़ा उदाहरण नीतीश कुमार का विधानसभा में यौनिकता से जुड़ा बयान है.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लड़कियों की तालीम और प्रजनन अधिकार से जुड़ी एक बात की.

उनकी बात का लब्बोलुआब था कि पढ़ाई की वजह से लड़कियों में गर्भ से बचने के एक ख़ास तरीक़े की जानकारी बढ़ी है.

वे इसका इस्तेमाल कर रही हैं. इसीलिए बिहार के प्रजनन दर में कमी आ रही है.

गर्भ निरोधक के जिस तरीक़े की वे बात कर रहे थे, उसे पारंपरिक तरीक़ा माना जाता है. स्त्री-पुरुष यौन संबंध के दौरान वीर्य स्त्री के अंदर न गिरे, यही वह तरीक़ा है. यह तरीक़ा ज़माने से इस्तेमाल हो रहा है. यह तरीक़ा पारंपरिक ज्ञान पर आधारित है.

नीतीश के बयान के साथ दिक़्क़त

हालाँकि नीतीश ने जिस तरह यह बात कही, वह हंगामे की वजह बन गया. उसने पूरी बात को हवा में उड़ा दिया.

माने न माने, नीतीश का तरीक़ा यौनिक था. आमतौर पर हमारे समाज में जब सेक्स की जब बात होती है तो उसका बयान चटखारे लेकर किया जाता है.

आँखों में ख़ास चमक होती है. होंठों पर मुस्कान आ जाती है. हँसी-ठट्ठा होने लगता है. मन की बात चेहरे पर ज़ाहिर होती है.

ठीक ऐसा ही हो रहा था जब नीतीश बोल रहे थे. उनके हाव-भाव यौनिक थे. पीछे से माननीय सदस्यों के हँसी की आवाज़ भी आ रही थी.

इसके बाद सदन के बाहर यह मुद्दा बन गया. सोशल मीडिया पर नीतीश कुमार ही मज़ाक की वजह बन गए.

नीतीश कुमार यौन और प्रजनन अधिकार के बारे में जागरूकता की बात कर रहे थे. हमारे समाज में इन मुद्दों को ढँका-छिपा कर रखा जाता है, या दबी ज़बान में बात की जाती है.

वहाँ एक मुख्यमंत्री का सदन में यौन शिक्षा की बात करना बड़ी बात है. नीतीश ने अपनी बात कहने के लिए जिन शब्दों, तरीक़ों या व्याख्या का सहारा लिया, उसने उनकी बात की गंभीरता को ख़त्म कर दिया.

उनका अंदाज़-ए-बयाँ गरिमापूर्ण नहीं था. लेकिन जिस तरह नीतीश पर हमला हुआ, वह भी मुद्दे से भटकाने की ही कोशिश कही जाएगी.

ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि हम जब यौनिकता पर बात करते हैं तो हम गंभीर नहीं रहते. यह जानने-समझने का विषय है, यह हमारे ज़हन में नहीं रहता. यह हमारे ज्ञान के दायरे में नहीं आता. इसलिए जब यह बात खुलकर होती है तो यह बहुत लोगों को परेशान कर देती है.

नीतीश कितना सही: प्रजनन दर और शिक्षा

हम ज़रा नीतीश कुमार की बातों के पीछे की हक़ीक़त की पड़ताल करें तो बेहतर होगा.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफ़एचएस) की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि देश और राज्यों में प्रजनन दर में गिरावट देखने को मिल रही है.

प्रजनन दर बताती है कि एक महिला अपने प्रजनन काल में कितनी संतानों को जन्म देगी.

भारत की प्रजनन दर एनएफ़एचएस-3 में जहाँ 2.70 थी, वहीं 15 साल बाद एनएफ़एचएच-5 (2019-20) में यह घटकर 2 पर आ गई है. यह प्रजनन दर जनसंख्या को स्थिरता की तरफ़ ले जाने वाली जादुई संख्या है.

दूसरी ओर, एनएफ़एचएस-3 में बिहार की प्रजनन दर 4 थी, जो एनएफ़एचएस-5 में घटकर 3 के क़रीब पहुँच गई है.

अब आते हैं, नीतीश कुमार की बात पर. क्या शिक्षा का रिश्ता प्रजनन दर से है?

एनएफ़एचएस-5 के मुताबिक़, बिहार में जो स्त्रियाँ कभी स्कूल नहीं गईं, उनमें प्रजनन दर, राज्य की औसत दर से ज़्यादा यानी 3.77 है.

इसके बरअक्स जिन्होंने 10-11 साल की स्कूली शिक्षा हासिल की, उनमें प्रजनन दर 2.42 है. जिन्होंने 12 या उससे ज़्यादा साल की शिक्षा पूरी की उनमें प्रजनन दर 2.20 है. यानी प्रजनन दर घटने का सीधा रिश्ता स्त्री शिक्षा से है.

वहीं, बेटों की चाह भी परिवार का आकार बढ़ाने में काफ़ी अहम भूमिका अदा करती है.

आँकड़े बताते हैं कि बेटों की चाह का रिश्ता भी स्त्रियों की पढ़ाई से है. जो स्त्रियाँ कभी स्कूल नहीं गईं, वैसी 43.2 फ़ीसदी महिलाएँ, ज़्यादा बेटों की ख़्वाहिश रखती हैं.

वहीं जिन लड़कियों ने 12 या उससे ज़्यादा साल की शिक्षा पूरी की है, वैसी महज़ 15.6 फ़ीसदी महिलाएँ ही ज़्यादा बेटों की ख़्वाहिश रखती हैं.

शिक्षा के लिहाज़ से बेटों की चाहत में ठीक उसी तरह बदलाव आता है, जैसे प्रजनन दर में बदलाव देखने को मिलता है.

गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल और शिक्षा

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समाप्त

नीतीश कुमार ने जो बात कही थी, वह तीन चीज़ों से जुड़ती है- स्त्री शिक्षा, यौन शिक्षा और प्रजनन अधिकार.

इनमें सबसे अहम है, गर्भनिरोधक उपायों की जानकारी. बिना इसकी जानकारी के प्रजनन दर में कमी संभव नहीं है.

एनएफ़एचएस-5 की बिहार की रिपोर्ट के मुताबिक़, अभी भी सबसे लोकप्रिय गर्भनिरोधक का तरीक़ा स्त्री नसबंदी है.

स्त्री के शिक्षित होने से जो सबसे महत्वपूर्ण आँकड़े में बदलाव आता है, वह यही नसबंदी है.

आँकड़े ये भी बताते हैं कि गर्भनिरोधकों के उपाय में पुरुष की भागीदीरी न के बराबर है.

लेकिन स्त्री शिक्षा से एक महत्वपूर्ण बदलाव आता है. जैसे-जैसे उसकी शिक्षा बढ़ती है वह नसबंदी से इतर उपायों का वह इस्तेमाल करती है.

यही नहीं पुरुष कंडोम का इस्तेमाल भी स्त्री शिक्षा के साथ बढ़ता है. यानी इससे ऐसा लगता है कि पढ़ाई के साथ स्त्री का अपने साथी के साथ संवाद बढ़ता है.

क्या इस्तेमाल करें, इस पर संवाद होता है. वह पुरुषों को भी भागीदार और ज़िम्मेदार बनाती है, आँकड़ों से ऐसा लगता है.

पढ़ाई से उसकी अपनी शख़्सियत भी बनती है. वह शख़्सियत उसे अपनी बात कहने और मनवाने की ताक़त देती है.

इसी तरह स्त्री की पढ़ाई के साथ-साथ पारंपरिक गर्भनिरोधक के तरीक़ों का इस्तेमाल भी बढ़ता दिखता है.

एनएफ़एचएस पारंपरिक तरीक़े को दो हिस्से में बाँटता है. एक है, माहवारी चक्र संयम. यानी माहवारी का ध्यान रखकर उन दिनों में यौन संबंध न बनाना जिन दिनों में गर्भधारण की उम्मीद ज़्यादा रहती है.

दूसरा वह है, जिसकी चर्चा नीतीश कर रहे थे. यह बहुत कारगर तरीक़ा नहीं है. यह भरोसेमंद तरीक़ा नहीं है. यह सदियों से अपनाया जा रहा है.

स्त्री की पढ़ाई बढ़ने से दोनों तरीक़े ज़रूर बढ़ते हैं लेकिन सबसे ज़्यादा माहवारी चक्र संयम विधि का इस्तेमाल बढ़ा है.

नीतीश कुमार को पूरी जानकारी नहीं है या नहीं दी गई है. इसीलिए वे एक सबसे कमज़ोर तरीक़े को ही प्रजनन दर कम होने की वजह बता डालते हैं.

वे सिर्फ़ इतना भी कहते तो बात बन जाती कि अगर प्रजनन दर कम करना है तो लड़कियों को पढ़ाना ज़रूरी है.

जैसे-जैसे पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ रही है, प्रजनन दर में कमी आ रही है. इसकी एक वजह परिवार का आकार छोटा रखने की चाह भी है.

उम्मीद ज़्यादा रहती है. दूसरा वह है, जिसकी चर्चा नीतीश कर रहे थे. यह बहुत कारगर तरीक़ा नहीं है. यह भरोसेमंद तरीक़ा नहीं है. यह सदियों से अपनाया जा रहा है.

शब्दों का चयन

सेक्स या यौन शिक्षा पर बात करना बुरा नहीं है.

नीतीश कुमार की नीयत ग़लत नहीं लगती, लेकिन अंदाज़-ए-बयाँ ने पूरे मुद्दे को कहीं और ले जाकर खड़ा कर दिया.

हमारे समाज में ऐसे विषयों पर हिंदी में बात करने की सीमा है.

यौनिकता से जुड़ी बात अंग्रेज़ी में कही जाए तो हमें दिक़्क़त नहीं होती.

वही बात अगर हिंदी में कही जाए तो हमें अटपटा लगता है. हम बेचैन होने लगते हैं.

तो एक बड़ा सवाल है, किस शब्दावली में यौनिकता पर हिंदी में बात की जाए?

भाषा और मुहावरे तो तलाशने होंगे. तब ही व्यापक चर्चा मुमकिन है.

एक और बात. एक तबक़ा आबादी को ‘क़ाबू’ में करने की बहुत बातें करता है. वह आबादी तो ‘नियंत्रण’ करना चाहता है लेकिन यौनिकता या यौन शिक्षा पर बात नहीं करना चाहता.

आबादी को कम करना है तो यौन शिक्षा पर बात करनी ज़रूरी है.

हंगामे के संदर्भ में एक और बात का ज़िक्र करना यहाँ अटपटा नहीं होगा.

स्त्री का अपनी यौनिकता पर नियंत्रण या अपने यौन व प्रजनन अधिकारों का इस्तेमाल करना, पितृसत्ता आसानी से पचा नहीं पाता है.

पितृसत्ता इसे अपने लिए चुनौती भी मानता है. दबंग मर्दानगी को इससे चोट पहुँचती है.

इसलिए भी ऐसी किसी बात को या तो हवा में उड़ाने की कोशिश होती है या इस पर हो-हल्ला होने लगता है.

अब नीतीश कुमार ने जब ख़ुद अपने बोलने के तौर-तरीक़े की निंदा कर ली है. माफ़ी माँग ली है.

इस निंदा और माफ़ी को हम सबको मंज़ूर करना चाहिए.

इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि शिक्षा, यौन शिक्षा का रिश्ता बेहतर यौन व प्रजनन स्वास्थ्य और कम प्रजनन के लक्ष्य से सीधा जुड़ा है. इस पर बात की जाए तो बेहतर है.

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