15 नवंबर 1949 की सुबह। अंबाला सेंट्रल जेल परिसर। जेलकर्मी नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को सेल से निकालकर फांसी के तख्त की तरफ ले जाने लगे। गोडसे ने कांपती आवाज में बोला ‘अखंड भारत’, आप्टे ने थोड़ा मजबूत आवाज में ‘अमर रहे’ कहकर स्लोगन पूरा किया। इसके बाद दोनों खामोश रहे।
फांसी के दो तख्त बनाए गए थे, जिनमें गोडसे और आप्टे को एक साथ फांसी दी गई। आप्टे की फौरन मौत हो गई, जबकि गोडसे थोड़ी देर तड़पते रहे। दोनों की मौत के फौरन बाद जेल परिसर में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। प्रशासन ने बड़ी सावधानी से अस्थियों को घग्घर नदी में बहा दिया। इस घटना को आज ठीक 74 साल पूरे हो चुके हैं।
महात्मा गांधी की हत्या में 9 आरोपी बनाए गए थे। उन पर 8 महीने तक लाल किले में बनी ट्रायल कोर्ट में सुनवाई हुई। इसी मामले में दोषी पाए जाने पर गोडसे और आप्टे को फांसी हुई थी। सिर्फ एक शख्स को दोषमुक्त किया गया। उनका नाम था विनायक दामोदर सावरकर।
बात 30 जनवरी 1948 की है। भारत को आजादी मिले 6 महीने हुए थे। शाम हो चुकी थी और घड़ी में बज रहे थे सवा पांच। महात्मा गांधी दिल्ली स्थित बिड़ला हाउस के प्रार्थना सभा की ओर जा रहे थे। उनके साथ एक शख्स थे गुरबचन सिंह, जिन्होंने गांधी जी से कहा था कि बापू आज आपको थोड़ी देर हो गई है। गांधी जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि जो लोग देर करते हैं, उन्हें सजा मिलती है।
इस बात को कुछ मिनट ही हुए थे कि एक शख्स सामने आया और एक-एक कर तीन गोलियां महात्मा गांधी के सीने में उतार दीं। महात्मा गांधी की हत्या करने वाला शख्स था नाथूराम गोडसे।
गोली मारने के बाद गोडसे ने भागने की कोशिश की, लेकिन वहां मौजूद लोगों ने पकड़ लिया। इसके बाद इस हत्या की साजिश में शामिल नारायण आप्टे और विष्णु करकरे भी गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी की हत्या के 6 दिन बाद मुंबई पुलिस सावरकर के शिवाजी पार्क स्थित घर पहुंची। सावरकर ने पूछा- क्या आप मुझे गांधी की हत्या के मामले में गिरफ्तार करने आए हैं। पुलिस ने हां कहा और उन्हें पकड़कर ले गई। मई में उन्हें दिल्ली ले जाया गया। स्पेशल जज आत्माराम लाल किले में लगी कोर्ट में केस की सुनवाई कर रहे थे।
गांधी की हत्या के आरोपियों में से एक दिगंबर बड़गे सरकारी गवाह बन गया। उसकी गवाही पर ही विनायक सावरकर पर केस चलाया गया। डोमिनिक लैपियर और लैरी कोलिंस की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के मुताबिक बड़गे ने सावरकर के खिलाफ गवाही में ये 4 अहम बातें बताईं…
- गांधीजी की हत्या के कुछ दिन पहले 14 जनवरी को नारायण आप्टे, नाथूराम गोडसे और दिगम्बर बड़गे ने हथियार समेत सावरकर से उनके आवास पर मुलाकात की थी।
- नारायण आप्टे ने बड़गे को बताया था कि सावरकर ने तय कर लिया है कि गांधी की हत्या करनी है और ये काम उन्हें (आप्टे और गोडसे) सौंपा था।
- बड़गे ने बताया था कि 17 जनवरी को सावरकर ने आप्टे और गोडसे से एक और मुलाकात की। सावरकर ने मराठी में कहा था कि यशस्वी होउं यानी सफल होकर लौटना।
- सावरकर सदन से निकलने पर आप्टे ने बैज को बताया कि सावरकर ने भविष्यवाणी की थी कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि कार्य (गांधी की हत्या का) सफल होगा।
सरकारी गवाह बड़गे के इन आरोपों पर सावरकर ने खुद अपना पक्ष रखा। उन्होंने ऐसी दलीलें दीं, जिससे कोर्ट को सरकारी गवाह की बात साबित करने के लिए और गवाहों और सबूतों की जरूरत पड़ गई।
आरोपः गांधी की हत्या से 15 दिन पहले गोडसे और आप्टे ने सावरकर से मुलाकात की थी।
सावरकर की दलीलः सावरकर ने कहा कि मेरी कोई मुलाकात गोडसे या आप्टे से हुई है, इसे स्टैब्लिश ही नहीं किया जा सकता। बड़गे भले ही गोड़से और आप्टे के साथ आया हो, लेकिन उसे बाहर इंतजार करने के लिए कहा गया था। जबकि बाकी दोनों अंदर चले गए थे। सावरकर ने कोर्ट को तर्क दिया कि सावरकर सदन में आने का ये मतलब कतई नहीं है कि कोई मुझसे ही मिलने आया हो। मेरे घर में हमेशा दामले, भिंडे और कासर भी हमेशा पाए जाते थे और ये आप्टे और गोडसे के दोस्त थे। हो सकता है दोनों हिंदू महासभा के अपने दोस्तों या सहकर्मियों से मिलने आए हों। गोडसे और आप्टे खुद भी इनकार कर चुके हैं कि वे कभी हथियारों के साथ मुझसे मिले थे।
आरोप: सावरकर ने तय कर लिया था कि गांधी की हत्या करना है और ये काम आप्टे और गोडसे को सौंपा गया है।
सावरकर की दलीलः सावरकर ने कहा कि ये कैसे मान लिया जाए कि बड़गे सच कह रहा है। उससे बड़ा सवाल ये है कि आप्टे ने जो बड़गे को बताया है उसमें कितना सच है। यह साबित करने के लिए कोई गवाह या सबूत नहीं है कि मैंने आप्टे से कहा था कि गांधी, नेहरू या सुहरावर्दी की हत्या करना है। हो सकता है आप्टे ने अपने हिंदू संगठनवादियों पर धाक जमाने के लिए मेरे प्रभाव का फायदा उठाने के लिए झूठ बोला हो। हो सकता हो प्रॉसीक्यूशन ने एक चाल के तहत ये आरोप रचा हो।
आरोप: 17 जनवरी को सावरकर ने आप्टे और गोडसे से कहा था कि यशस्वी होउं या यानी सफल होकर लौटना।
सावरकर की दलीलः सावकर ने इस आरोप पर कहा कि 17 जनवरी 1948 अथवा उससे पहले या बाद में मेरी मुलाकात तो दूर की बात मैंने दोनों को देखा भी नहीं। ऐसे में सवाल ही नहीं उठता कि मैंने उनसे कहा हाे कि सफल होकर लौटना।
दूसरी बात बड़गे खुद ये कह चुका है कि वो मेरे घर के नीचे था और गोडसे और आप्टे ऊपर अकेले गए थे तो उन्हें कैसे पता चला कि मैंने ये कहा भी है या नहीं। हो सकता हो ये दोनों मेरे मकान में रहने वाले किसी किराएदार से मिलकर लौट आए हों जो पहली मंजिल पर रहता हो। बड़गे ने मुझे दोनों से मिलते हुए नहीं देखा था।
चलिए मान भी लिया जाए कि बड़गे ने मुझे, आप्टे और गाेडसे को देखा था और दोनों ने मुझसे बातचीत भी की तो भी इन्हें कैसे पता चला कि हम ये ही बात कर रहे हैं। बड़गे खुद मान चुका है कि वो नीचे बैठा था तो नीचे बैठा हुआ आदमी पहली मंजिल की बातचीत कैसे सुन सकता है। ये अपने आप में बेतुका है।
इसके बाद भी ये मान लिया जाए कि मैंने कहा था कि सफल होकर लौटना तो ये कैसे माना जाए कि मैंने किस मामले पर ये कहा होगा। हो सकता है मैंने दोनों काे हमारे डेली न्यूज पेपर अग्रणी या हिंदू राष्ट्र प्रकाशन लिमिटेड के शेयर बेचने के लिए कहा हो, चूंकि बड़गे हमारे साथ ऊपर थे ही नहीं इसलिए वे ये नहीं कह सकते कि मैंने किस मामले में ये कहा था कि सफल होकर लौटना।
स्वतंत्र गवाहों के अभाव में दोषमुक्त हो गए थे सावरकर
गांधी हत्या केस में दिगंबर बड़गे के बयान के बावजूद सावरकर इसलिए मुक्त कर दिए गए कि इन षड्यंत्रों को साबित करने के लिए कोई ‘स्वतंत्र साक्ष्य’ नहीं था। कानून के मुताबिक अगर किसी साजिश को अदालत में साबित करना हो तो इसकी पुष्टि इंडिपेंडेंट गवाहों के जरिए की जानी चाहिए। गवाहों के बयान में विसंगति नहीं होनी चाहिए। चूंकि अदालत में बड़गे के अलावा कोई और स्वतंत्र गवाह पेश नहीं किए गए। लिहाजा गांधी की हत्या मामले में सावरकर बरी हो गए।
हालांकि यह बात आज भी सस्पेंस है कि अगर निचली अदालत ने सावरकर को दोषमुक्त किया था तो इस फैसले के खिलाफ सरकार ने हाईकोर्ट में अपील क्यों नहीं की।
इस मामले पर रॉबर्ट पायने अपनी बुक ‘द लाइफ एंड डेथ ऑफ महात्मा गांधी’ में लिखते हैं कि सावरकर कभी षड्यंत्रकारियों से नहीं मिले थे। यदि वो मिले भी तो उस बैठक का गांधी की हत्या की साजिश से कोई लेना-देना नहीं था।
गोडसे तरस रहा था और सावरकर ने एक नजर भी नहीं देखा
डॉ. दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे के वकील पीएल इनामदार ने अपने संस्मरण ‘द स्टोरी ऑफ द रेड फोर्ड ट्रायल 1948-49’ में लिखा है कि नाथूराम गोडसे ये उम्मीद कर रहा था कि उसने जाे काम किया है उसकी तात्याराव तारीफ करें, लेकिन सावरकर ने प्रशंसा करना तो दूर एक नजर भरकर भी गोडसे की तरफ नहीं देखा। सावरकर को हिंदू महासभा के लोग तात्याराव कहकर संबोधित करते थे।
इनामदार लिखते हैं कि मेरी नाथूराम से आखिरी मुलाकात शिमला हाईकोर्ट में हुई थी इस संबंध में उसने अपनी आहत भावनाओं का जिक्र किया था। पूरे केस के दौरान सावरकर ने एक बार भी कभी गोडसे की ओर सिर घुमाकर नहीं देखा, जबकि वे सभी एक साथ बैठते थे। बाकी आरोपी एक-दूसरे से बात करते थे। मजाक करते थे, लेकिन सावरकर अनुशासित चुपचाप बैठते थे और दूसरों को भी चुप रहने के लिए कहते थे। इनामदार ने नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे समेत दो साजिशकर्ताओं का केस लड़ा था।