मध्यप्रदेश, मैं तब करीब 13 साल की थीं। मेरे पड़ोस में रहने वाले एक दादा कई दिनों से मेरा पीछा कर रहे थे। जब मैं स्कूल जाती थी तो मेरे पीछे-पीछे स्कूल तक आते थे। मुझे कभी उन पर शक नही हुआ। मैं तो उन्हें अपने पिता का पिता यानी दादा समझती थी, लेकिन एक दिन उन्होंने रास्ते में मेरी साइकिल रोक दी। मुझसे बोले कि वह मेरे साथ संबंध बनाना चाहते है। मैंने उनसे कहा कि आप मेरे दादा हैं, फिर मैं तेजी से साइकिल चलाकर घर आ गई।
मैं काफी डरी थी। मुझे लगा कि फिर से दादा रास्ते में मेरी साइकिल रोकेंगे। इसलिए अगले दिन से मैंने स्कूल जाना ही बंद कर दिया। ममी इससे परेशान हुईं। उन्हें लगा कि जो लड़की पढ़ने में काफी अच्छी हो, वह अचानक स्कूल जाने से कैसे इनकार कर सकती है। कहीं कुछ बात तो नहीं है। उन्होंने मुझसे पूछा भी, लेकिन डर की वजह से ममी को कुछ बता नहीं पाई। मुझे डर लगता था कि कहीं मम्मी-पापा मेरा घर से बाहर निकलना बंद न कर दें या फिर मुझे पढ़ने से न हटा लें।
एक दिन ममी ने काफी जोर देकर पूछा तो मुझे सब कुछ बताना पड़ा। मैंने उन्हें बता दिया कि पड़ोस वाले दादा ऐसा-ऐसा कहते हैं। फिर मां ने पापा से सारी बात बताई और पापा ने पड़ोस वाले दादा के परिवार से बात की। इससे दादा का परिवार बहुत नाराज हो गया। उनके बच्चे और पोते-पोतियां कहने लगे कि मैं झूठ बोल रही हूं। उन्हें बदनाम करना चाहती हूं। गांव की पंचायत ने दादा को बुलाकर बहुत डांटा और कहा कि आइंदा अगर ऐसी शिकायत आई तो अच्छा नहीं होगा।
हमें लगा अब मामला खत्म हो गया। पापा खेती किसानी के काम में लग गए और हम भाई-बहन अपनी पढ़ाई में जुट गए, लेकिन दादा के मन में अंदर ही अंदर बदले की आग सुलग रही थी। उन्हें लग रहा था कि मैंने उन्हें बदनाम किया है। एक हफ्ते बाद की बात है। रात का खाना खाकर अपने परिवार के साथ घर की छत पर सो रही थी। आधी रात करीब 12 बजे दादा की उम्र के मेरे पड़ोसी दीवार फांद कर हमारी छत पर आए और मेरे चेहरे पर तेजाब फेंक दिया और कहने लगे कि तू मेरी न हो सकी तो मैं तुझे किसी और की भी नहीं होने दूंगा।
ऐसा लगा जैसे किसी ने मुझे आग में डाल दिया हो। मैं जोर-जोर से चीखने लगी। मेरा चेहरा बुरी तरह से झुलस गया। मम्मी-पापा मुझे झुलसे चेहरे के साथ पुलिस स्टेशन ले गए। वहां उस दादा के खिलाफ FIR लिखी गई। उसके बाद बिजनौर के सिटी अस्पताल में मुझे एडमिट किया गया। वहां करीब दो महीने तक मेरा इलाज हुआ। उधर दादा को उम्रकैद हो गई।
एक खूबसूरत चेहरे वाली लड़की बिना चेहरे के हो गई। बदसूरत हो गई। मेरी दुनिया उजड़ गई। मेरे पड़ोसियों का व्यवहार बदल गया। लोगों ने मुझसे बात करना बंद कर दिया। मेरा चेहरा डरावना हो गया। बच्चे मुझसे दूर भागते थे। मुझे सबने अलग-थलग कर दिया। आसपास के लोग ममी-पापा से कहने लगे कि इसे अस्पताल ले जाकर जहर का इंजेक्शन दिलवा दो, मर जाएगी। आखिर इस तरह जी कर क्या करेगी, लेकिन पापा-ममी ने मेरा साथ नहीं छोड़ा।
मैं अब कहीं नहीं जाती थी। मेरी पढाई बीच में ही रुक गई। मैं सोचती कि मैं कैसी हो गई हूं, मेरा चेहरा कैसा हो गया है, समाज की जली कटी बातों से तंग आकर मैंने तय कर लिया कि समाज मेरे चेहरे को नहीं अपनाएगा तो मैं खुद तो अपने चेहरे को अपना ही सकती हूं। मैंने तय कर लिया कि मुझे इसी चेहरे के साथ जीना है। मैंने अपनी किस्मत को स्वीकार कर लिया।
एक दिन मैं अखबार पढ़ रही थी। उसमें एक खबर का जिक्र था कि आगरा में एसिड अटैक सर्वाइवर अपना एक कैफे चलाती है। मै अपने पापा के साथ वहां गई। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या कर सकती हूं। मैने कहा कि मै नौकरी करना चाहती हूं। उन्होंने मुझे इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स करवाया, सोशल मीडिया का कोर्स करवाया। मैंने तीन-चार महीने आगरा मे नौकरी की।
फिर हम कुछ एसिड अटैक सर्वाइवर ने मिलकर लखनऊ में शिरोज नाम से एक रेस्तरां खोला जहां शहर के इटेलेक्चुअल और विशेष तबके के लोग आते हैं। अब हमारा रेस्तरां इतना मशहूर है कि अब जो लोग लखनऊ आते हैं, वे यहां खाना खाने जरूर आते हैं। शिरोज लखनऊ की पहचान बन चुका है। यह हमारी जीत है। हमारे स्वाभिमान की जीत है कि जब हम खाना सर्व करते हैं तो कुछ लोग हमारे हाथ से थाली ले लेते हैं कि हम खुद खाना ले लेंगे।
पहले मेरे अंदर समाज को लेकर बहुत शिकायतें थीं, लेकिन जब मैंने अपने जैसी और एसिड अटैक सर्वाइवर देखी तो मुझे हौसला मिला। मुझे लड़ने का हौसला मिला कि और एसिड अटैक सर्वाइवर नहीं होनी चाहिए। मैने सोशल मीडिया के जरिये एसिड अटैक के लिए इलाज, शिक्षा और रोजगार पर काम किया।
मैं गांव-गांव जाकर एसिड अटैक सर्वाइवर को बताती हूं कि उन्हें एडवोकेसी के लिए कहां जाना चाहिए। एजुकेशन के लिए क्या करना चाहिए। इलाज के लिए किस अस्पताल में जाना चाहिए। मैं सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर हूं, आगे मोटिवेशनल स्पीकर बनना चाहती हूं।
हालांकि एक चीज मुझे अभी भी खटकती है। समाज अजीबो-गरीब तरीके से बिहेव करता है। मुझे हर दिन एहसास करवाया जाता है कि मैं कहीं जाकर चेहरा छिपा लूं, लेकिन जब औरों को देखती हूं तो हिम्मत मिलती है। मैं लोगों से बस इतना ही कहना चाहती हूं कि हमें अपनाएं, भगाए नहीं। हमारे साथ जो कुछ हुआ, उसके कसूरवार हम खुद नहीं है।
जले हुए चेहरों के इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं। मेरे तीन ऑपरेशन हुए और 15 लाख रुपए खर्च हुए। जबकि अदालत से मुझे मुआवजे में पांच लाख रुपए ही मिले थे। मेरा इलाज आज भी चल रहा है।