देहरादून। जैव विविधता के लिए मशहूर 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में वनीकरण में अब कोई गड़बड़झाला नहीं हो पाएगा। न सिर्फ वनीकरण बल्कि क्षतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन एवं नियोजन प्राधिकरण (कम्पनसेटरी एफॉरेस्टेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी, कैंपा) की भारी-भरकम निधि से होने वाले अन्य कार्यों पर भी आसमान से चौबीसों घंटे निगरानी रहेगी। उत्तराखंड में कैंपा ने केंद्र सरकार के वेब आधारित निगरानी सिस्टम ‘ई-ग्रीन वाच’ को लागू कर दिया है। इसमें कैंपा के कार्यों के शुरू होने से लेकर मुकाम हासिल करने तक की हर गतिविधि की जानकारी तो होगी ही, उपग्रह से मिलने वाली तस्वीरें हकीकत भी बयां करेंगी। कैंपा के कार्यों की निगरानी व मूल्यांकन के लिए पहले स्थलीय भौतिक सत्यापन की व्यवस्था थी। इसमें गड़बड़ी की शिकायतों को देखते हुए केंद्र सरकार ने कैंपा की विभिन्न योजनाओं की निगरानी और मूल्यांकन के लिए ई-ग्रीन वॉच सिस्टम तैयार कराया। सभी राज्यों को इसे अपने यहां लागू करना है। इस कड़ी में उत्तराखंड कैंपा ने पिछले साल दिसंबर में ई-ग्रीन वॉच की पहल कर इसके लिए बाकायदा एक सेल गठित किया। अब यह आकार लेने लगा है।
चालू वित्तीय वर्ष में राज्य में कैंपा के तहत 211.03 करोड़ की लागत से होने वाले कार्यों की निगरानी ई-ग्रीन वॉच से होगी। यह सिलसिला निरंतर चलता रहेगा। सेटेलाइट मॉनीटरिंग पर केंद्रित ई-ग्रीन वाच पोर्टल का जिम्मा भारतीय वन सर्वेक्षण के पास है और वही कैंपा के कार्यों पर इसके जरिये निगरानी रखता है। कैंपा की किसी भी योजना, परियोजना की शुरुआत से लेकर भूमि हस्तांतरण, संबंधित क्षेत्र व भूमि की जीपीएस लोकेशन, रोपे गए पौधों की संख्या व प्रजाति, बजट-खर्च आदि की पूरी जानकारी वेब आधारित ई-ग्रीन वाच सिस्टम में दर्ज होगी। फिर सेटेलाइट से मिलने वाली तस्वीरों के जरिये इसकी मॉनीटरिंग की जाएगी। कहीं भी खामी पाए जाने पर भारतीय वन सर्वेक्षण संबंधित राज्यों के कैंपा को इसकी जानकारी देगा। उत्तराखंड कैंपा के सीईओ डॉ. समीर सिन्हा के मुताबिक कैंपा के कामकाज में स्थिरता, गुणवत्ता, विश्वसनीयता और पारदर्शिता के लिहाज से ई-ग्रीन वॉच एक बेहतर व कारगर प्रणाली है। यह ऐसा मजबूत सिस्टम है कि इसमें कहीं भी गड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।
हिमालयी क्षेत्रों में चीड़ वृक्षों का ग्राफ जहां लगातार बढ़ रहा है। वहीं बांज के जंगल सिमटते जा रहे हैं। विशेषज्ञ इसे पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक स्थिति मानते हैं। उनका कहना है कि बांज पर्यावरणीय दृष्टि से काफी लाभप्रद होते हैं, जबकि चीड़ उतने ही नुकसानदायक। बांज वाले क्षेत्र में भूस्खलन की आशंका भी कम होती है। इसके विपरीत चीड़ भूस्खलन को बढ़ावा देता है। जिस क्षेत्र में बांज के जंगल होते हैं, वहां पानी की भी कमी नहीं होती। लेकिन हिमालय में अब तो चीड़ के पेड़ पांच हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर भी बहुतायत में नजर आ रहे हैं। उत्तराखंड में वन विभाग के अधीन 25 लाख 86 हजार 318 हेक्टेयर वन क्षेत्र में चीड़ ने 15.25 फीसद में कब्जा जमा लिया है। जबकि बांज के जंगल सिमटकर 14.81 फीसद पर आ गए हैं। उत्तराखंड के प्रमुख मुख्य वन संरक्षक जयराज कहते हैं, वन विभाग ने वर्ष 2005 से चीड़ का प्लांटेशन करना बंद कर दिया है और अब इसे हतोत्साहित करने के लिए कार्य किया जा रहा है। केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी नमामि गंगे परियोजना के तहत उत्तराखंड में राष्ट्रीय नदी गंगा से लगे क्षेत्रों में भी हरियाली पर ग्रहण लगा है। आकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं।