खागा/फतेहपुर। चंद्रशेखर आजाद के बलिदान दिवस पर गोष्ठी का आयोजन हुआ। गोष्ठी हरदो गांव के चंद्रशेखर विद्यालय में आयोजित की गई। गोष्ठी में मुक्त वक्ता बुंदेलखंड राष्ट्र समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण पांडेय ने कहा कि स्वाधीनता संग्राम के अनेकों क्रांतिकारियों में कुछ योद्धा बहुत ही विरले हुए थे। जिनकी बहादुरी और स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रबल महात्वाकांक्षा ने उन्हें जनमानस की स्मृति में चिरस्थायी कर दिया। उनके शौर्य की कहानियों को दोहराए बिना राष्ट्र की स्वाधीनता का इतिहास बयां ही नहीं किया जा सकता। जब भी देश के क्रांतिकारियों, आजादी के संघर्षों को याद करते है तो हमारे अंतर्मन में एक खुले बदन, जनेऊधारी, हाथ में पिस्तौल लेकर मूछों पर ताव देते बलिष्ठ युवा की छवि उभर कर आ जाती है। मां भारती के इस सपूत का नाम था चंद्रशेखर आजाद, जिनकी आज पुण्यतिथि है। 27 फरवरी 1931 को आजाद अपने साथी क्रांतिकारी सुखदेव राज से मिलने पहुंचे थे। वे दोनों पार्क में घूम ही रहे थे कि तभी अंग्रेज अफसर नॉट बावर अपने दल-बल के साथ वहां आ धमका जिसके बाद दोनों ओर से धुंआधार गोलीबारी शुरू हो गई। अचानक हुए इस घटनाक्रम में आजाद को एक गोली जांघ पर और एक गोली कंधे पर लग चुकी थीं बावजूद इसके उनके हाव भाव सामान्य बने हुए थे। वे अपने साथी सुखदेव के साथ एक जामुन के पेड़ के पीछे जा छिपे और स्थिति को हाथ से निकलता देख अपने साथी सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया। इस दौरान आजाद ने तीन गोरे पुलिस वालों को भी ढेर कर दिया लेकिन अब उनके शरीर में लगी गोलियां अपना असर दिखाने लगी थीं। वहीं नॉट बावर अपने सिपाहियों के साथ अंधाधुंध गोलियां बरसा रहा था। आखिरकार आजाद की पिस्तौल खाली होने को आ गई। अब पास की गोलियां भी खत्म हो चुकी थीं लिहाजा इस वीर योद्धा ने अपनी पिस्तौल में बची अंतिम गोली को स्वयं की नियति में ही लिखने का साहसिक फैसला कर लिया। अब पार्क में सन्नाटा पसर गया। नॉट बावर के तरफ से भी फायरिंग थम गई थीं। आजाद हर्षित मन से जीवन की अंतिम घड़ियों में अपने देश की माटी और उसकी आबो हवा को महसूस कर रहे थे और एकाएक उनकी पिस्तौल आखिर बार गरजी और ये वो क्षण था जब उन्होंने उस पिस्तौल में बची अंतिम गोली को अपनी कनपटी पर दाग लिया था। मां भारती ने अपने लाल को खो दिया था लेकिन उसका ख़ौफ अंग्रेजों में इस कदर हावी था कि गोरे सिपाही उसके मृत शरीर के पास तक आने से कतरा रहे थे और लगातार उन पर गोलियां बरसाए जा रहे थे। आखिर में चंद्रशेखर आजाद की इस बहादुरी से नॉट बावर इतना प्रभावित हो चुका था कि उसने खुद टोपी उतार कर आजाद को सलामी दी और उनकी पिस्तौल को अपने साथ अपने देश ले गया था, जिसे आजादी के बाद वापस भारत लाया गया।