भारत मे सदियों से जल संरक्षण की मानता रही है। हमारे देश में तो नदी तालाब और कुंआ रहें हैं लेकिन पिछले 100 सालों में कथित विकास के नाम पर हमने भूजल और जल के स्रोतों को इतना दोहन किया है कि पूरी दुनिया मे पानी को पीने के लिये कमी से जूझ रही है। देश -दुनिया में हजारों छोटी नदियां विलुप्त हो गई तालाब और कुंआ सूख चुके हैं। भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। 2001 के आंकड़ों को देखें तो आज की तस्वीर काफी गंभीर है।
1951 में यह उपलब्धता 14,180 लीटर थी। 1951 की उपलब्धता का अब यह 35 फीसद ही रह गई है। 1991 में यह आधे पर पहुंच गई थी। अनुमान के मुताबिक 2025 तक प्रति व्यक्ति के लिए प्रति दिन के हिसाब से 1951 की तुलना में केवल 25 फीसद भूमिगत जल ही शेष बचेगा। केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) के आंकड़ों के मुताबिक साल 2050 तक यह उपलब्धता घटकर केवल 22 फीसद ही बचेगी। एक महत्वपूर्ण तथ्य के अनुसार हर दिन औसतन 321 अरब गैलन पानी मनुष्यों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। इसमें 77 अरब गैलन पानी अकेले पृथ्वी के भीतर से निकाला जाता है।
इंटरनेशनल ग्राउंड वाटर रिसोर्स असेसमेंट सेंटर (आइजीआरसी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 270 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पूरे एक साल में 30 दिन तक पानी के संकट से जूझते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले तीन दशक में पानी का उपभोग एक फीसदी की दर से भी बढ़ता है तो दुनिया को बड़े जल संकट से गुजरना होगा। इसका सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन नदी झील और जलाशयों का खत्म होना होगा।
विश्व जल दिवस यानी पानी के वास्तविक मूल्य को समझने का दिन पानी बचाने के संकल्प का दिन। पानी के महत्व को जानने का दिन और जल संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन। आंकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.6 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है। पानी की इसी जंग को खत्म करने और जल संकट को दूर करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1992 में रियो डि जेनेरियो के अपने अधिवेशन में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रुप में मनाने का निश्चय किया था।
विश्व जल दिवस का पर्यावरण तथा विकास का संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में की गई है जिस पर सर्वप्रथम 1993 को पहली बार 22 मार्च के दिन पूरे विश्व में जल दिवस के मौके पर जल के संरक्षण और रखरखाव पर जागरुकता फैलाने का कार्य किया गया। भारत मे जल ही जीवन है का मुहावरा काफी प्रचलित है लेकिन इसका वास्तविक अर्थ देश की अधिकांश जनसंख्या को नहीं पता है क्योंकि वो पानी के महत्व को न ठीक से समझना चाहते हैं। और ना ही ठीक से समझना चाहते है
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की मौसम के नाम से अपनी नई रिपोर्ट में कहा कि 2018 में विश्व स्तर पर 3.6 अरब लोगों के पास प्रति वर्ष कम से कम एक महीने पानी की अपर्याप्त पहुंच थी और 2050 तक यह संख्या पांच अरब से अधिक होने की संभावना है। रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी पर केवल 0.5 प्रतिशत पानी ही उपयोग योग्य और उपलब्ध ताजा पानी है। “संयुक्त राष्ट्र की मौसम विज्ञान एजेंसी के महासचिव पेटेरी टालस का कहना है कि धरती का तापमान जिस तेजी के साथ बढ़ रहा है उसकी बदौलत जल की सुलभता में भी बदलाव आ रहा है। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर बारिश के पूर्वानुमान और कृषि ऋतुओं पर भी पड़ रहा है। उन्होंने इस बात की भी आशंका जताई है कि इसका असर खाद्य सुरक्षा, मानव स्वास्थ्य और कल्याण पर भी हो सकता है।
भारत में विश्व की लगभग 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लेकिन उसके लिए मात्र 4 प्रतिशत पानी ही उपलब्य है। विकास के शुरुआती चरण में पानी का अधिकतर इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता था। लेकिन समय के साथ स्थिति बदलती गई और पानी का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर औद्योगिक क्षेत्र में होने लगा। भविष्य में इन क्षेत्रों में पानी की और मांग बढ़ने की संभावना है, क्योंकि जनसंख्या के साथ-साथ औद्योगिक क्षेत्र में भी तीव्र वृद्धि हो रही है। गौरतलब, है कि कई शहरों (बंगलूर, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई आदि) में अभी से पानी की किल्लत होने लगी है।
दूसरी तरफ गांवों में पेयजल की समस्या भी कम विकट नहीं है। वहां की 90 प्रतिशत आबादी पेयजल के लिए भूजल पर आश्रित है। लेकिन, कृषि क्षेत्र के लिए भूजल के बढ़ते दोहन से बहुत से गांव पीने के पानी का संकट झेलने लगे हैं। दुनिया के ज्यादातर इलाकों में पानी की गुण्वत्ता में कमी आ रही है और साफ पानी में रहने वाले जीवों की प्रजातियों की विविधता और पारिस्थितिकी को तेजी से नुकसान पहुंच रहा है। यहां तक कि समुद्री पारिस्थितिकी की तुलना में भी यह क्षरण ज्यादा है। इसमें यह भी रेखांकित किया गया है कि 90 फीसदी प्राकृतिक आपदाएं जल से संबंधित होती हैं और इनमें बढ़ोत्तरी हो रही है।
वन क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियों के बढ़ने, नदियों-जलाशयों के प्रदूषित होते जाने और बिगड़ते परिस्थितिकी संतुलन को लेकर काफी समय से चिंता जताई जा रही है। न सिर्फ पर्यावरण के लिए काम करने वाले संगठन इसके लिए सरकारों पर दवाब बनाने की कोशिश करते रहे हैं बल्कि विभिन्न अदालतें भी इनसे संबंधित कई निर्देश जारी कर चुकी हैं। मगर लगता है सरकारें प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा को लकर गंभीर नहीं हैं। कई बड़े शहरों में तालाबों के सूख जाने की स्थिति में उनके रख-रखाव की पहल करने की बजाय उन पर रिहाइशी कालोनियां या व्यावसायिक परिसर बना दिये गए हैं। यह संवैधानिक तकाजा है कि सरकारें पर्यावरण संवर्धन के कार्यक्रम चलायें और लोगों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे वनों, नदियों, तालाबों आदि की रक्षा में अपना सहयोग दें।
पूरे देश में पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। इससे पार पाना सभी सरकारों के लिए चुनौती है। पर्यावरण विशेषज्ञ वर्षा जल संचयन पर बल देते रहे हैं। अगर तालाबों और झीलों जैसे पारंपरिक जल स्त्रोतों के संरक्षण-संर्वधन की बजाय उन पर कंक्रीट के जंगल खड़े होते गए तो इस संकट से निपटने की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं। कई राज्यों में प्राकृतिक जल स्त्रोतों की देख-रेख के लिए अलग से विभाग हैं। जलाशयों में बढ़ते प्रदूषण और गाद को रोकने के लिए वे योजनाएं बनाते हैं। मगर वे कागज पर ही रह जाती हैं।
भारत में जल संबंधी मौजूदा समस्याओं से निपटने में वर्षाजल को भी एक सशक्त साधन समझा जाए। पानी के गंभीर संकट को देखते हुए पानी की उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की जरूरत होती है और पानी का 70 फीसदी हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है इसलिए पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सिंचाई का कौशल बढ़ाया जाए यानी कम पानी से अधिकाधिक सिंचाई की जाए।
अभी होता यह है कि बांधों से नहरों के माध्यम से पानी छोड़ा जाता है जो किसानों के खेतों तक पहुंचता है। जल परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि छोड़ा गया पानी शत-प्रतिशत खेतों तक नहीं पहुंचता। कुछ पानी रास्ते में भाप बनकर उड़ जाता है कुछ जमीन में रिस जाता है और कुछ बर्बाद हो जाता है। पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं।अगर हम इसी तरह कथित विकास के कारण अपने जल संसाधनों को नष्ट करते रहें तो वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आंखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएंगे।
लेकिन अब हमें जब यह पता है कि जल संकट का विकट दौर चल रहा है तो हमें यह समझना होगा कि जल का कोई विकल्प नहीं है, मानव का अस्तित्व जल पर ही निर्भर है, जल सृष्टि का मूल आधार है, जल है तो खाद्यान है, जल है तो वनस्पतियां हैं, जल का कोई विकल्प नहीं है जल संरक्षण से ही पर्यावरण संरक्षण है जल का पुरर्भरण करना ही जल का उत्पादन करना है। कुल मिलाकर ये समझना ही होगा कि जल है तो कल है। हमें यह मानना ही होगा कि मानव की जल की आवश्यकता किसी अन्य आवश्यकता से काफी महत्वपूर्ण है। इसके लिए जरुरत है जागरुकता की। एक ऐसी जागरुकता की जिसमें छोटे से छोटे बच्चे से लेकर वरिष्ठ नागरिक भी पानी को बचाना अपना धर्म समझें।