इतिहास के पन्नों में मोहर्रम की तीन तारीख

फतेहपुर। कर्बला (ईराक) में दो मोहर्रम को नवासए रसूल हजरत इमाम हुसैन (अ) के पहुंचते ही यजीदी फौज को गर्वनर कूफा इब्ने ज्याद ने कर्बला भेजना शुरू किया। जिनको कुल तादात इतिहासकारों ने कम से कम तीस हजार और अधिक से अधिक एक लाख बताई है। इस फौज ने आकर हजरत इमाम हुसैन के खेमों को चारों तरफ से घेर लिया और नहर अलकमा (फरात) को अपने कब्जे में कर लिया। चार मोहर्रम को शिम्र ने आकर पानी पर पहरा लगा दिया और इमाम हुसैन पर पानी बंद कर दिया और यह दबाव डाला कि वह यजीद मलून की बैअत (ताबेदारी) कुबूल कर लें। किन्तु हजरत इमाम हुसैन ने यजीद की ताबेदारी से इंकार कर दिया।
यजीद की फौज का सिपहसालार इब्ने साद ने बराबर इस बात का प्रयत्न किया कि इमाम हुसैन यजीद की बैअत कर लें लेकिन इधर से बराबर इंकार होता रहा। आखिरकार नौ मोहर्रम आ गई और यजीद ने अपनी फौज को जंग का आदेश दिया। इस पर हजरत इमाम हुसैन ने शांति का प्रस्ताव रखा कि यजीद उन्हें अपनी हुकूमत के क्षेत्र के बाहर चला जाने दे और रास्ता दे दे कि वह किसी अन्य स्थान पर चलें जाएं। इतिहासकारों ने इस स्थान पर यह भी लिखा है कि हजरत इमाम हुसैन ने भारत आने की इच्छा प्रकट की थी किन्तु यजीद ने उनको इसकी इजाजत नहीं दी और कर्बला में रहकर जंग करने या बैअत करने का प्रस्ताव दोहराया। जिस पर हजरत इमाम हुसैन ने बैअत न कर सत्य व धर्म के लिए यजीद से जंग करना मंजूर कर लिया। जिसका सिलसिला दस मोहर्रम की सुबह से प्रारंभ होकर लगभग पांच बजे सायंकाल वक्ते नमाजे अस्र तक हजरत इमाम हुसैन की शहादत तक चलता रहा। वक्ता तीन तारीख की मजलिसों में हजरत इमाम हुसैन के साथियों की जंग व शहादत बयान करते हैं। जिनमें प्रमुख हजरत हुर, हजरत अनस, हजरत जौन गुलाम, हजरत अबूजर गफ्फारी, हजरत बुरैर हमादानी, हजरत बहव कलवी प्रमुख हैं। हजरत इमाम हुसैन के इन साथियों में हजरत हुर यजीद की फौज में एक हजार सिपाहियों का सेनापति था। जो इन्हें घेर कर कर्बला के चटियल व रेतीले मैदान मे लाया था। दस मोहर्रम की सुबह हजरत इमाम हुसैन की सत्यता, धर्म निष्ठा व कर्तव्य से प्रभावित होकर अपने पुत्र, भाई व गुलाम के हजरत इमाम हुसैन के बहत्तर साथियों में सम्मिलित होकर अपने अपराध की क्षमा मांगी और सबसे पहले यजीद की फौज से जंग करके शहीद हुए। जनाबे वहब ईसाई धर्म के मामने वाले थे और इस्लाम धर्म के विरोधी थे। यह अपनी शादी करके अपनी मां व पत्नी के साथ वापस आ रहे थे। जब कूफा मे उन्होनें सुना कि पैगम्बर साहब के नाती को अकारण अधर्मी यजीद की फौज ने घेर लिया है तो यह कर्बला आ गये और इस्लाम धर्म स्वीकार करके हजरत इमाम हुसैन की सहायता हेतु धर्म के मार्ग पर अपने प्राणों की आहूति देकर अमर हुए। हजरत बुरैर की रास्ते में हजरत इमाम हुसैन से भेंट हुई और उनके चरित्र से प्रभावित होकर हजरत इमाम हुसैन के साथ रहने व उनकी सहायता करने का वचन देकर यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हुए। हजरत जौन का रंग काला था और यह हबशी थे तथा सहाबिए रसूल हजरत अबूजर के गुलाम थे। इन्होनें दस मोहर्रम को यजीद की फौज से लड़ने की आज्ञा मांगी। जब हजरत इमाम हुसैन ने आज्ञा नहीं दी तो निराश होकर कहा कि मैं जानता हूं कि आप मुझे लड़ने व धर्म पर बलिदान होने से इसलिए मना कर रहे हैं कि मेरा रंग काला है और मेरे पसीने से दुर्गंध आती है। इस पर इमाम हुसैन ने उन्हें गले से लगाकर जंग करने की इजाजत दी और उन्होनें अपने प्राणों की बलि दी। इसी प्रकार जनाबे अनस यह सुनकर कि पैगम्बर साहब के नवासे को जालिम व अधर्मी यजीद की फौज घेरे हैं। उनकी मदद के लिए इतनी तीव्र गति से अपने वतन से कर्बला रवाना हुए कि रास्ते में घोड़ा ठोकर खाकर गिर गया और चोटहिल हो गया तो पैदल तेज गति से अपनी पानी की मश्क फेंककर हजरत इमाम हुसैन के पास दस मोहर्रम को कर्बला पहुंचकर हजरत इमाम हुसैन की सहायता कर अपने प्राणों की बलि दी और अमर हुए।

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