क्षितिज पर मंडराते बादल अब तूफान का रूप लेने लगे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें धीरे-धीरे बढ़ते हुए चिंतनीय स्तर तक पहुंच गई हैं। क्रूड ऑयल के एक प्रमुख बेंचमार्क, ब्रेंट के दाम करीब 79 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच चुके हैं। भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि तेल की इन बढ़ती कीमतों की वजह से भारत को कई तरह की चुनौतियों से जूझना होगा और उसका आर्थिक विकास भी प्रभावित हो सकता है। कुछ महीने पहले तक यह उम्मीद की जा रही थी कि अमेरिका में शैल ऑयल के बढ़ते उत्पादन के चलते विश्व में तेल की मांग गर्मियों तक काबू में रहेगी, लेकिन यह उम्मीद निरर्थक साबित हुई और इस वक्त तेल की कीमतें पिछले चार साल में उच्चतम स्तर पर हैं। दुनिया की अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तरह भारत के लिए भी तेल की उच्च कीमतों के प्रभाव से निपटना मुश्किल
क्यों बढ़ रही है तेल की कीमत
वैश्विक तेल कीमतों में इजाफे की कई वजहें हैं, लेकिन इसका सबसे प्रमुख कारण तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक का यह निर्णय है कि सदस्य देश तेल उत्पादन के उसी कोटे पर टिके रहें, जो नवंबर 2016 से निर्धारित है। इसके साथ-साथ दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक रूस भी तेल उत्पादन नियंत्रित करने में ओपेक देशों के साथ सहयोग कर रहा है। इसके अलावा लीबिया और वेनेजुएला जैसे देशों में मची सियासी उथल-पुथल ने भी बाजार में तेल उपलब्धता के स्तर पर असर डाला है। इसी दौरान चीन जैसे बड़े तेल आयातक देश में अर्थव्यवस्था चरमराने के साथ तेल की मांग बढ़ने लगी है। हालात जल्द सामान्य होते इसलिए भी नहीं लगते, क्योंकि अमेरिकी प्रशासन ने ईरान के साथ अपने परमाणु करार को रद कर दिया है। इसका मतलब है कि ईरान पर पुन: प्रतिबंध लादे जा सकते हैं। इन प्रतिबंधों में ईरान द्वारा तेल उत्पादन व विक्रय में कमी को भी शामिल किया जा सकता है। इससे इराक में भी तेल उत्पादन पर असर पड़ सकता है, चूंकि अतीत में भी दोनों देशों का तेल कोटे में जुड़ाव रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो आने वाले महीनों में तेल की उपलब्धता में और कमी आ सकती है, फलत: कीमतों में बढ़ोतरी का नया दौर शुरू हो सकता है।
बढ़ती कीमत का असर
हमारे देश में आम उपभोक्ताओं ने इसका असर महसूस भी करना शुरू कर दिया है। पेट्रोल व डीजल की कीमतें वर्ष 2014 के बाद से सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई हैं। इसका बढ़ती महंगाई के रूप में हमारी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ना तय है। इसके अलावा तेल आयात की बढ़ती लागत के चलते व्यापार घाटा बढ़ने के साथ चालू खाता घाटा भी बढ़ेगा, जो कि अप्रैल-दिसंबर 2017 की अवधि के दौरान पहले ही जीडीपी का 1.9 फीसद तक हो चुका है। भारत अपनी कुल खपत का 80 फीसद तेल आयात करता है, जिसका खर्च वर्ष 2016-17 में 71 अरब डॉलर से बढ़कर 2017-18 में 88 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इसके अलावा हालिया दौर में रुपये के मूल्य में तीव्र गिरावट के चलते भी सरकारी खजाने पर बोझ और बढ़ेगा।
यदि तेल की बढ़ती कीमतों के झटके को निस्तेज करने का उपाय नहीं खोजा जाता तो आर्थिक विकास की रफ्तार पर इस बाहरी कारक का प्रभाव पड़ना तय है। हमारी अर्थव्यवस्था नोटबंदी व जीएसटी के क्रियान्वयन के रूप में लगे दोहरे झटके से अभी उबर ही रही है। अब तक यही उम्मीद की जा रही है कि मौजूदा वित्त-वर्ष में हमारी अर्थव्यवस्था 7.4 फीसद दर से आगे बढ़ेगी, लेकिन तेल की बढ़ती कीमतें इस रफ्तार को सुस्त कर सकती हैं।
निपटने के उपाय
फिलहाल घरेलू बाजार में पेट्रोल व डीजल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों के उतार- चढ़ाव के हिसाब से तय होती हैं और इसी वजह से पिछले कुछ महीनों में इनके दामों में बढ़ोतरी देखी गई है। तेल की बढ़ती कीमतों से निपटने का एक उपाय तो यह हो सकता है कि सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर करों में कटौती करे। इन पर कर की दरें पहले ही बहुत ज्यादा हैं और मौजूदा केंद्र सरकार अपने शुरुआती दिनों में निम्न आयात बिल के चलते उत्पाद शुल्क आदि में इजाफा कर इसका फायदा ले चुकी है। हालांकि सरकार ने बाद में कुछ राहत दी थी, लेकिन फिलहाल वह और कटौती करने के मूड में नहीं लगती, क्योंकि इससे केंद्र की राजस्व आय घट जाएगी। आदर्श स्थिति तो यह है कि पेट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाया जाए, किंतु विभिन्न राज्य ऐसे किसी भी कदम का विरोध कर रहे हैं। दरअसल वे भी पेट्रोलियम से मिलने वाले अपने राजस्व में कमी को लेकर उतने ही आशंकित हैं।
हालांकि फौरी तौर पर इस समस्या से निपटने के सीमित उपाय ही हैं, जिनमें से कुछ का अंतरराष्ट्रीय मंच पर आखिरकार इस्तेमाल भी किया जा रहा है। ऐसे ही एक उपाय के तहत भारत तेल निर्यातक देशों से बेहतर डील हासिल करने के लिए चीन जैसे अन्य बड़े आयातक देशों के साथ जुड़ाव कायम करने की कोशिश कर रहा है। इस संदर्भ में एक उपभोक्ता समूह बनाने की भी बात हुई है, जिसमें चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत जैसे तेल के बड़े खरीदार देश शामिल हों। यदि ऐसा होता है तो यह गेम-चेंजर साबित होगा, क्योंकि चीन और भारत दुनिया में तेल के दूसरे व तीसरे सबसे बड़े आयातक देश हैं। हम जैसे बड़े खरीदारों को सस्ते दामों पर तेल मिले, इस खातिर आक्रामक ढंग से सौदेबाजी करनी होगी और एशियाई देशों के लिए अपेक्षाकृत उच्च कीमतों के प्रावधान (जिसे एशियाई प्रीमियम की संज्ञा दी जाती है) को हटाने पर जोर देना होगा। इस संदर्भ में तेल आपूर्तिकर्ता देशों के साथ कहीं ज्यादा प्रतिस्पद्र्धी दामों पर दीर्घकालिक क्रय अनुबंध किए जा सकते हैं, जिससे आयातक देशों को फायदा हो।
संप्रग जैसे हालात
दिलचस्प ढंग से कांग्रेस की अगआई वाली केंद्र की पूर्ववर्ती संप्रग सरकार भी अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में तेल की बढ़ती कीमतों की इस समस्या से जूझ रही थी। इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब यह कहा था कि कुछ बाहरी कारकों के चलते भी विकास प्रभावित हो रहा है तो तत्कालीन विपक्ष ने इसे खारिज करते हुए कहा कि वे अपनी अकर्मण्यता पर परदा डालने की कोशिश कर रहे हैं। उस वक्त तो तेल की कीमतों ने 140 डॉलर के स्तर को छू लिया था। हालांकि आज कीमतें उस हद तक तो उछलती नहीं लग रहीं, किंतु यह जरूर लगता है कि इस साल के अंत तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 90 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं। ऐसे में एनडीए सरकार भी अपने कार्यकाल के अंत में खुद को वैसी ही स्थिति में पा सकती है, जहां वह सुस्त विकास के लिए बाहरी कारकों को जिम्मेदार ठहराती नजर आए।
अक्षय ऊर्जा को तवज्जो देने का वक्त
बहरहाल इस समस्या के दीर्घकालीन समाधान के लिहाज से यह किया जा सकता है कि ऊर्जा सुरक्षा को कहीं ज्यादा तवज्जो दी जाए। नवीकरणीय ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा और प्राकृतिक गैस जैसे विकल्पों की भूमिका को बढ़ाया जाए। अन्यथा तमाम सेक्टरों के लिए ऊर्जा के मुख्य स्नोत के तौर पर पेट्रोलियम पर अति-निर्भरता के चलते हमारे आर्थिक विकास की राह यूं ही बाधित होती रहेगी।
आसमान पर मंडराते बादल अब तूफान का रूप लेने लगे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें चिंतनीय स्तर तक पहुंच गई हैं। क्रूड ऑयल के एक प्रमुख बेंचमार्क ब्रेंट के दाम लगभग 79 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए हैं। भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि तेल की इन बढ़ती कीमतों की वजह से भारत को कई तरह की चुनौतियों से जूझना होगा और उसका आर्थिक विकास भी प्रभावित हो सकता है।