साठ साल बाद सच होता ‘‘ लोकपाल ‘‘ का सपना

सुप्रीम कोर्ट सख्त रूख अपनाने के बाद लग रहा है कि देश को उसका पहला लोकपाल मिल जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह एक हलफनामा देकर यह बताए कि लोकपाल की नियुक्ति कब तक हो जाएगी? कार्यपालिका के ऊंचे स्तरों पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल की निुयक्ति की जो अवधारणा 1963 में दी गई थी। देश ने छह दशक पहले जो लोकपाल का सपना देखा था वह अब सच साबित होता दिख रहा है। । वास्तव में इस सपने के सच होने की राह इतनी आसान नहीं थी।लोकपाल हकीकत की तरफ बढ़ता हुआ कदम नहीं, बल्कि एक नारा और एक मुद्दा था। लोकपाल की बात करने वालो को जब सत्ता में मिली तो उन्होंने कुछ नहीं किया। कई सारी समितियां बनीं, ढेर सारे सुझाव आए, इसके तमाम विधेयक भी तैयार हुए, उनकी खामियों पर ढेर सारी चर्चाएं भी हुईं। विधेयक संसद में पेश भी हुए। लेकिन परिणाम शुन्य दिखाई पड़ा।लोकपाल पर काम तब शुरू हुआ जब गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने इस मसले को उठाया और देश में एक आंदोलन जैसा माहौल बना। इस माहौल के बनने का एक बड़ा कारण यह भी था कि उन दिनों भ्रष्टाचार के कई बड़े और बहुत बड़े मामले एक के बाद एक उजागर हुए। जिसकी वजह से लोगों के मन में गुस्सा था और अन्ना हजारे ने इसी गुस्से को एक आकार दे दिया था। इसके बाद सरकार और तकरीबन सभी दल एक ठीक-ठाक लोकपाल विधेयक पर सहमत हुए। यह विधेयक न सिर्फ संसद में पेश हुआ, बल्कि दिन-रात एक करके तमाम संशोधनों के साथ 2013 में फटाफट पारित भी हुआ। 2014 शुरू होते ही राष्ट्रपति ने इस पर दस्तखत भी कर दिए और देश को पहला लोकपाल कानून मिला। हालांकि चार साल बीत गए और देश अभी भी लोकपाल की नियुक्ति का इंतजार कर रहा है।
हम तमाम सरकारों की तरह ही इस सरकार को भी दोष दे सकते हैं कि उसने लोकपाल मसले पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह भी तब, जब इसका कानून बन चुका था और लोकपाल की नियुक्ति उसकी जिम्मेदारी थी। लेकिन इसके लिए सरकार का जो तर्क है, उस पर भी हमें गौर करना होगा। लोकपाल की नियुक्ति की जो प्रक्रिया है, उसमें लोकसभा में विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाना है। 2014 के आम चुनाव के बाद लोकसभा का जो गणित बना है, उसमें किसी भी दल के पास विपक्षी दल की हैसियत नहीं है। विपक्षी दल नहीं है। इसलिए विपक्ष का नेता भी नहीं है। मामला सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचा, तो उसने कहा कि नियुक्ति को सिर्फ विपक्ष का नेता न होने के कारण नहीं रोका जा सकता, इसलिए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए। उसके बाद भी प्रगति धीमी थी, इसलिए अदालत ने अब समयबद्ध प्रगति और इस बाबत हलफनामे की बात की है। सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था कि मौजूदा कानून किसी सदस्य की अनुपस्थिति से लोकपाल की नियुक्ति को नहीं रोकता। उसके बाद ही मामला आगे बढ़ा। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि संसद की स्थाई समिति ने लोकपाल कानून में संशोधन का प्रस्ताव भेजा है। सरकार इस पर विचार कर रही है। मौजूदा कानून के अनुसार चयन समिति में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में लोकसभा की स्पीकर, भारत के चीफ जस्टिस या उनके द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट का कोई जज तथा प्रख्यात न्यायविद् सदस्य होंगे। यदि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं है तो समिति के अन्य सदस्य जाने-माने न्यायविद् को चुन सकते हैं। कानून में साफतौर पर कहा गया है कि चयन समिति में कोई रिक्त पद होने से नियुक्ति अवैध नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वर्ष 2013 का लोकपाल और लोकायुक्त कानून व्यावहारिक है और इसका क्रि यान्वयन लटकाकर रखना न्यायसंगत नहीं है। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने दलील दी थी कि लोकपाल एवं लोकायुक्त कानून दिसम्बर 2013 में संसद से पारित हो गया था और एक जनवरी 2014 को राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए थे। इसी बाॅत पर लोकपाल की नियुक्ति में अनावश्यक देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रवैया अपनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से कहा है कि वह दस दिन के अंदर बताए कि वह कब तक लोकपाल की नियुक्ति करेगी। जस्टिस रंजन गोगोई और आर भानुमति की बेंच ने यह निर्देश उस वक्त दिया जब अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सरकार से मिले लिखित निर्देश उनके समक्ष पेश किए और कहा कि लोकपाल चयन समिति की शीघ्र ही बैठक होगी। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र को दस दिन के भीतर इस संबंध में हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया। इस हलफनामे में यह संकेत दिया जाना चाहिए की इस नियुक्ति के बारे में क्या कदम उठाए जाने हैं और इसकी समय सीमा क्या है। अटार्नी जनरल ने जब लिखित निर्देशों के प्रासंगिक पैराग्राफ का जिक्र किया तो अदालत ने कहा कि हम चाहते हैं कि संबंधित अधिकारी जो कुछ भी कहना चाहते हैं वह हलफनामे पर कहें। गैर सरकारी संगठन कामन काज की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा कि साढ़े चार साल बाद भी लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई है। इसी संगठन ने लोकपाल की नियुक्ति को लेकर याचिका दायर की है। सुप्रीम कोर्ट के पिछले साल 27 अप्रैल के फैसले के बावजूद लोकपाल की नियुक्ति नहीं होने के कारण अवमानना याचिका दायर की है। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट को सरकार द्वारा लोकपाल की नियुक्ति नहीं किए जाने तक संविधान के अनुच्छेद 142 में प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल कर इसकी नियुक्ति करनी चाहिए। अदालत ने कहा कि इस मामले में कोई भी आदेश पारित करने से पहले वह सरकार में सक्षम प्राधिकार का हलफनामा देखना चाहती है। इसके साथ ही अदालत ने इस मामले की सुनवाई 17 जुलाई के लिए स्थगित कर दी और केन्द्र को इस मामले में दस दिन के भीतर हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया। इससे पहले, केन्द्र सरकार ने पूर्व अटार्नी जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी को लोकपाल चयन समिति में प्रमुख विधिवेत्ता के रूप में नामित किया गया था। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में 11 मई को हुई बैठक में रोहतगी को चयन समिति में प्रबुद्ध विधिवेत्ता के रूप में नियुक्त करने का निर्णय किया गया था। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद 2014 में रोहतगी को अटार्नी जनरल नियुक्त किया गया था। उन्होंने जून 2017 में इस पर से इस्तीफा दे दिया था। लोकपाल चयन समिति में विधिवेत्ता का पद 11 सितंबर, 2017 को वरिष्ठ अधिवक्ता पीपी राव का निधन होने के बाद से रिक्त था। अदालत ने अटार्नी जनरल की दलील सुनने के बाद इस मामले की सुनवाई दो जुलाई के लिए स्थगित कर दी थी।यह अच्छी बात है कि लोकपाल की नियुक्ति का काम उस समय होने जा रहा है, जब भ्रष्टाचार के बड़े मसले पहले की तरह से राष्ट्रीय विमर्श में नहीं हैं। विजय माल्या या नीरव मोदी जैसे कुछ उदाहरण जरूर दिए जा सकते हैं, लेकिन ये ऐसे मामले हैं, जिनसे मौजूदा कानूनी व्यवस्थाओं से ही निपटा जा सकता है। आज के माहौल में अगर देश को लोकपाल जैसी सदृढ़ व्यवस्था मिलती है, तो इससे उच्च स्तर पर ऐसे मामलों में कमी भले ही शुरू में न दिखे, लेकिन वे बढेंगे नहीं। लोकसभा में विपक्ष के नेता के अभाव में भी लोकपाल के चयन का मामला काफी लम्बे समय तक लटका रहा था।

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