धनखड़ की बरकरार है धाक :केंद्र ने बदले 8 राज्यपाल लेकिन बंगाल में ममता से टक्कर लेने वाले जगदीप धनखड़ को नहीं छेड़ा
कोलकता। राष्ट्रपति ने एक साथ 8 राज्यपालों की नियुक्ति मंगलवार को की लेकिन जिस पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच सबसे ज्यादा संघर्ष चल रहा है वहां कोई बदलाव नहीं किया गया। टीएमसी सांसद सुखेंदु शेखर रॉय का कहना है कि राज्यपाल जगदीप धनखड़ भी बेशर्म हैं और केंद्र सरकार भी बेशर्म है।ट्रांसफर लिस्ट में सबसे पहला नाम जगदीप धनखड़ का ही होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि वे भाजपा के एजेंट की तरह राज्य में काम कर रहे हैं और उन्होंने राजभवन को भाजपा कार्यालय में तब्दील कर दिया है।70 साल के जगदीप धनखड़ को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 30 जुलाई 2019 को बंगाल का 28वां राज्यपाल नियुक्त किया था। धनखड़ की नियुक्ति के बाद से ही उनके और राज्य की सत्ता पर काबिज TMC के बीच संघर्ष चल रहा है। टकराव इतना बढ़ चुका है कि पिछले साल दिसंबर में ही TMC के 5 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलकर राज्यपाल धनखड़ को हटाने की सिफारिश की थी। रॉय ने कहा कि संविधान की धारा 156 की उपधारा 1 के तहत हमने राष्ट्रपति से राज्यपाल को हटाने की मांग की थी क्योंकि उन्होंने संविधान को भंग किया है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी नहीं माना। लेकिन उन्हें नहीं हटाया गया।चुनाव के पहले धनखड़ कहते थे ‘मैं देखूंगा कि चुनाव निष्पक्ष हों।’ अब ये काम तो चुनाव आयोग का है। हमसे इंडस्ट्रियल मीट में हुए खर्चे का हिसाब मांगते हैं जबकि केंद्र और राज्य सरकार के खर्चे की देखरेख का काम CAG का होता है तो हम राज्यपाल को हिसाब क्यों देंगे।राजभवन में उन्होंने अपने 4 रिश्तेदारों को OSD बना दिया है। पूरे राजभवन को BJP ऑफिस में तब्दील कर दिया है। जनता के पैसों से खाना-पीना चल रहा है। जैसे-जैसे रात होती जाती है वैसे-वैसे उनके ट्वीट भी बढ़ते जाते हैं। वे राजभवन में कारोबारियों से मिलते हैं। उन्होंने अपने पद की गरिमा गंवा दी। ये पूरा राज्य जानता है कि वे BJP के एजेंट के तौर पर बंगाल में काम कर रहे हैं।रविंद्र भारती यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और चुनाव विश्लेषक डॉ. विश्वनाथ चक्रवर्ती का कहना है कि बंगाल में राज्यपाल और सरकार में जो संघर्ष चल रहा है उसमें दोनों की ही गलतियां हैं। बहुत सारे मामलों में राज्य सरकार संविधान को नहीं मानती। धनखड़ ऐसे मामलों में आवाज उठा रहे हैं। ट्वीट कर रहे हैं।ऐसा नहीं है कि संविधान उन्हें ट्वीट करने से रोकता है लेकिन राज्यपाल के पद पर रहते हुए सरकार की हमेशा आलोचना करना पद की गरिमा को गिराता है। लेकिन वे जो पॉइंट रखते हैं वे सब सही होते हैं। बंगाल में राज्य सरकार लॉ एंड ऑर्डर की परवाह नहीं कर रही। इसलिए बीजेपी जब तक केंद्र में है वह धनखड़ को यहां से नहीं हटाएगी क्योंकि ऐसा करने से डेमोक्रेसी राज्य में पूरी से खत्म हो सकती है।पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच संघर्ष कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार हालात ज्यादा गंभीर हैं। 1967 में तत्कालीन सीएम अजय मुखर्जी उस समय के राज्यपाल धर्मवीर से भिड़ गए थे। उस समय राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी को पत्र लिखकर 3 दिन के भीतर संयुक्त मोर्चे में बहुमत साबित करने को कहा था। मुखर्जी ने जवाब दिया कि विधानसभा में जो भी होगा, वो पूर्व निर्धारित समय के अनुसार होगा। पत्र मिलने के बाद धर्मवीर ने केंद्र को कैबिनेट को बर्खास्त करने की सिफारिश भेजी थी।इसी तरह CPI-M के पूर्व राज्य सचिव प्रमोद दासगुप्ता ने पूर्व राज्यपाल बीडी पांडे को बांग्ला दमन पांडे कहा था। हालांकि सबसे बड़ा विरोध राज्यपाल एपी शर्मा के कार्यकाल में हुआ। साल 1984 में कोलकाता यूनिवर्सिटी के कुलपति पद के लिए वामपंथी उम्मीदवार रमन पोद्दार को मंजूरी न देकर संतोश भट्टाचार्य के नाम को मंजूरी दी थी। भट्टाचार्य कांग्रेस-जनता पार्टी की पंसद थे।इसके बाद वामपंथियों ने गवर्नर की मीटिंग में नहीं शामिल होने का फैसला किया था। उस समय राज्यपाल द्वारा बुलाई गई कानून परामर्श बैठक में मुख्यमंत्री ज्योति बसु भी शामिल नहीं हुए थे। वे नव-निर्वाचित मंत्री निहार बासू के शपथ ग्रहण समारोह में भी शामिल नहीं हुए थे।एपी शर्मा के बाद उमाशंकर दीक्षित बंगाल के गर्वनर बने। उस समय वामपंथियों ने सरकारिया आयोग को रिपोर्ट भेजी थी और कहा था कि बयानबाजी करने वाले राज्यपाल की कोई जरूरत नहीं। इससे पता चलता है कि बंगाल में राज्य और राज्यपाल के बीच संघर्ष का इतिहास लंबा है लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना है कि संघर्ष इतना घिनौना कभी नहीं रहा।