फतेहपुर। इस्लाम धर्म में वर्ष में एक माह के रोजे रखना प्रत्येक वयस्क स्त्री एवं पुरूष पर फर्ज है। इसी एक माह के रोजे रखने वाले माह को रमजानुल मुबारक के नाम से जाना जाता है। वैसे तो इस माह को बरकतों का महीना, गुनाह (पाप) को क्षमा करवाने का महीना आदि नामो से भी जाना जाता है। वक्त सहरी से शाम इफ्तार के समय तक पानी, खाना व खाने पीने के अतिरिक्त रोजा जिस्म के प्रत्येक अंग का होता है अर्थात रोजदार को चाहिए कि आंख से बुरा न देखे हांथो पैरो को गलत रास्ते पर न ले जाएं। कान से बुरी बाते न सुने, जबान से वह शब्द न निकाले जिसको इस्लाम ने मना किया है। इसी प्रकार शरीर के सभी अंगो का प्रयोग इस्लाम के दिए गए उपदेशों के तहत ही करे। साथ ही साथ जहां मजहबे इस्लाम में एक माह के रोजे रखना फर्ज है। वहीं अल्लाह ने यह भी कहा है कि अपनी जान को हलाकत में न डालो यानी यदि कोई पुरूष या स्त्री बीमार है और उसकी दवा चल रही है और यह अंदेशा है कि दवा बंद करने से जान हलाकत में पड़ सकती है तो उसके रोजे माफ हैं।
स्वस्थ होने पर वह रोजों की भी कजा पूरी कर सकता है। रमजानुल मुबारक के इस माह में अल्लाह तौबा के दरवाजे खोल देता है और रोजदार के गुनाह माफ करता है। रोजदार को चाहिए कि जिस प्रकार उसके रोजे नहीं छूट रहे इसी प्रकार अन्य फर्ज से भी बेखबर न हो। वैसे तो पूरे रमजान के हर दिन और रात की बड़ी कदर है लेकिन इसी माह में अल्लाह ने शबे कद्र की भी कुछ तारीखें बताई हैं। जिनमें इंसान अपने सारे गुनाहों को बक्शवा सकता है। अल्लाह रोजदार से यह भी उम्मीद रखता है कि रोजा रखने के बाद दूसरों की भूख और प्यास का भी तुम्हें ख्याल रहे अर्थात तुम्हारे पास सब कुछ होने के बाद भी तुम जब हमारे रोजदार बनोंगे तो तुमको पूरे दिन की प्यास और भूख से नसीहत मिलेगी कि जो गरीब तंगहाली की बिना पर भूखे रहते हैं तो उनका क्या हाल होता है। इसी से तुमको नसीहत मिलेगी और तुम गरीबो को भोजन कराकर ही खाया करोगे। प्रत्येक वर्ष में एक माह रोजे रखवाकर अल्लाह ग्यारह महीने देखता है कि बंदा किस दर्जे तक पहुंचा। इसलिए अल्लाह रोजदार के मुंह से निकली हुई दुआ कुबूल करने के इंतेजार में रहता है। मोमिन रोजदार को चाहिए कि हर वह अमल करे जो रोजदार को करना चाहिए। खिलाफ अमल से इसलिए बचे कि कहीं रोजा फाका न बन जाए और रोजे की जज़ा न मिल सके।
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