मुर्दों से चलती है हमारी रोजी-रोटी, श्मशान में पला-बढ़ा, लाशों के बीच होली-दिवाली, चिता की राख हमारे लिए प्रसाद

 

 

बनारस , लाश होने के बाद लोगों की जिंदगी खत्म हो जाती है। मेरी जिंदगी ही लाशों से ही शुरू होती है। चिता सजाना, आग देना, लाश जलाना, राख संभालना और श्मशान की सफाई करना मेरा काम है। नाम माता प्रसाद चौधरी है और बनारस के मणिकर्णिका घाट के सबसे पुराने कालू डोम खानदान (डोम राजा) का मौजूदा डोम हूं।

लोगों को लगता है कि डोम होने के चलते हमारा बचपन अलग तरीके से बीता होगा। हम अलग तरीके से पले-बढ़े होंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। मेरा बचपन भी सामान्य बच्चों की तरह ही बीता है। फर्क इतना है कि दूसरों के पिता नौकरी पर जाते हैं और मां घर पर रहती है या जॉब करती हैं, मेरे मां-बाप मणिकर्णिका घाट पर लाशें जलाते थे। उनका घर ही श्मशान था।

हमें बाकी बच्चों की तरह खिलौने नहीं मिले। चिता की लकड़ी और श्मशान की राख से ही खेलते थे। इतना ही नहीं, त्योहारों के दिन बाकी बच्चे उत्सव मनाते थे और हम होली-दिवाली को भी मुर्दों के बीच रह।

मुझे आज भी याद है, बचपन में हम गली में खेल रहे होते थे, उधर से डेड बॉडी आती थी, तो हम किनारे हो जाते थे। रास्ता दे देते थे। दोपहर की गर्मी में जब सोते नहीं थे, तो मां डराने के लिए बोल देती थी कि सो जा नहीं, तो वो लकड़ सिंह आ जाएगा। तब डेड बॉडी का ख्याल जेहन में आते ही डर जाता था कि कहीं बॉडी भूत बनकर न आ जाए।

बचपन में हम छुपन-छुपाई खेलते वक्त लाशों को जलाने वाली लकड़कियों के गट्ठर के पीछे छिप जाया करते थे। डेड बॉडी की भीड़ में छिप जाते थे। कभी-कभी तो जल रही लाशों की आग के पीछे छिप जाते थे। हमारे लिए लाशें, श्मशान ही सबकुछ रहा। मां-बाप को कभी यहां से निकलने की फुर्सत ही नहीं मिली। हम बाकी बच्चों की तरह न कहीं घूमने जा पाए न पिकनिक मना पाए।

10 साल का होते-होते मेरे अंदर से लाशों को लेकर सारा डर खत्म हो गया। लाशें जीवनसाथी लगने लगीं। अब तो 50 साल हो गए मुझे इस घाट पर काम करते। लोग मुझे ढूंढते हुए आते हैं कि कालू डोम खानदान का डोम कौन है।

मेरे खानदान के यहां 500 घर हैं। हमारे घर की दाल-रोटी मुर्दों से चलती हैं। लाश जलाना हमारा काम है, पेशा है। लोग तो ये भी सोचते हैं कि हमारा कभी भूत प्रेत से सामना हुआ होगा।

चैत के नवरात्र में इस श्मशान में नगर वधुएं नाचती हैं, रुद्राभिषेक होता है। महाशिवरात्री पर चिताओं की राख से हम होली खेलते हैं। चिता भस्म हमारे लिए भोले का प्रसाद है। सुना है न आपने ‘खेले मशाने में होली दिगंबर…

तकरीबन 15 साल का था, जब मैंने पहली चिता को आग दी थी। मुझे पैसे चाहिए थे। मैंने पिता को बिना बताए काम शुरू कर दिया। मुझे इस काम को सीखने की जरूरत नहीं पड़ी। जैसे मछली को पानी में तैरना कोई नहीं सिखा सकता है, वैसे ही मुझे यह काम किसी ने नहीं सिखाया।

मुझे इससे मतलब नहीं था कि लाश किसकी है। वो कैसे मरा, उसके परिवार में कौन-कौन है। मुझे पैसे से मतलब था। पैसे लेकर मैं वहां से फौरन चला जाता। इस तरह लाशें जलाने की आदत हो गई।

आमतौर पर लोग लाशों के पास नहीं जाते हैं, श्मशान नहीं आते हैं, कहीं से लाश निकल रही है, तो साइड हो जाते हैं। अगर श्मशान आए, तो लौटकर फौरन नहाना धोना करते हैं, लेकिन हम ऐसा कुछ नहीं करते हैं। हम ऐसे हो गए हैं कि हमारे लिए लिए जिंदा आदमी और मुर्दें में फर्क ही नहीं बचा है।

हमें लगता है कि हम भी दूसरों की तरह अपने काम से लौटकर आए हैं। हम घर आते हैं, खाना खाते हैं और बच्चों के साथ टाइम स्पेंट करते हैं।

एक और बात बेशक मेरी जिंदगी मुर्दों से है, लेकिन अपनों के जाने का दर्द मुझे भी होता है मैडम। इतना भी पत्थर नहीं हूं मैं। जब मां मरी थी, तो उसे आग देते वक्त रोया था। मुझे लगा कि इस औरत ने नौ महीने तक मुझे पेट में रखा, पाल-पोसकर, बड़ा किया।

फिर मैंने सोचा कि सबकी मां मरती है। मेरी भी मर गई, यही सोचकर खुद को सांत्वना दी। जब पिता मरे तो भी मैं रोया, मेरा भाई मरा तब भी रोया था। शायद जब चिता की आग का ताप किसी अपने का होता है, तो ही ताप लगता है।

लोग सोचते होंगे कि हम लाशों के बीच रहते हैं, तो मौत से डर नहीं लगता होगा, लेकिन ऐसा नहीं है। हम भी मौत से डरते हैं, क्योंकि हमें भी माया ने जकड़ रखा है। वो कहते हैं न…माया मरे न मन मरे, मर मर जाए शरीर..।

मैं सोचता हूं कि मेरे मरने के बाद पत्नी का क्या होगा, वो कहां जाएगी। बच्चों का क्या होगा। हालांकि फिर समझ आता है कि सब मरते हैं, हमें भी मरना है।

अभी थोड़ी देर पहले एक नन्हें बच्चे की लाश जलाई है। बच्चों, अकाल मौत और एक्सीडेंट वाली मौतों से थोड़ा सा विचलित होता हूं कि बेवक्त चला गया है। कई यात्री यहां आकर मर जाते हैं, तो लगता है कि कम से कम इसका कोई अपना इसके पास होता।

वो सामने देखिए एक जवान औरत की लाश पर रोना-पीटना मचा है। सुहागन के लिबास में है वो। मुश्किल से 25 साल की होगी। कैसे उसके बच्चे, मा-बाप, पति सब रो रहे हैं। ऐसी मौतों पर लगता है कि समय नहीं था अभी जाने का, लेकिन क्या करिएगा मौत का वक्त निश्चित है।

बहुत दफा ऐसा हुआ है कि किसी के घर में शादी है और उसी दिन कोई मर गया। या फिर बारात से भरी बस का एक्सीडेंट हो गया। ऐसे हादसे मन को विचलित करते हैं। हालांकि थोड़ी देर बाद ही हम अपने काम में लग जाते हैं।

एक और बात लाश घर में कोई नहीं रखता। कोई किसी का कितना ही सगा क्यों न हो। जैसे ही मरा लोग चाहते हैं कि फौरन इसे ले जाओ, लेकिन हम लोग यहां लाशों की सेवा के लिए सारी रात जागते हैं। यहीं रहते हैं। दुनिया के हर कोने से डेड बॉडी आती है यहां।

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