शिक्षा के बिना बच्चा बिना पंखों के पक्षी के समान है।’
– तिब्बती कहावत
करिअर फंडा में स्वागत!
‘सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है; इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है’
आज के भारत में शिक्षा की तस्वीर देखकर शहरयार की यही लाइनें याद आती हैं।
इंडिया में स्कूल एजुकेशन में जहां काफी कुछ अच्छा चल रहा है, वहीं कुछ बड़ी गलतियां भी हो रहीं हैं।
आइए देखें 8 बड़ी गलतियां
1) रियलिस्टिक व्यू का अभाव: काफी स्कूलों में इक्कीसवीं सेंचुरी के जॉब्स और सोसायटी को ध्यान में रखकर पढ़ाई नहीं कराई जाती। स्टूडेंट्स को एजुकेशन के आखिरी दो साल के पहले अपनी पसंद के सब्जेक्ट्स चुनने का मौका नहीं मिलता। अधिकतर एजुकेशन बंद कमरों में होती है, जहां टीचर्स आकर मोनोलॉग (एकालाप) देते जाते हैं, बच्चे नोट कर कर के कॉपियां भरते जाते हैं। टेस्ट में मार्क्स भी तभी दिए जाते हैं जब स्टूडेंट ठीक वैसा ही उत्तर लिखे जैसा क्लास में लिखाया गया था। इससे स्टूडेंट्स स्ट्रीट-स्मार्ट नहीं बन पाते। लेसन – चेंज द एप्रोच
2) नॉलेज के बजाय मार्क्स के पीछे दौड़ना: इंडिया के अधिकतर स्कूलों में केवल दो बातें होती है: (i) कोर्स कम्पलीट करना और (ii) ज्यादा से ज्यादा मार्क्स लाना। टीचर्स का काम कोर्स कम्पलीट कराना होता है और स्टूडेंट्स का ज्यादा से ज्यादा मार्क्स लाना। स्कोर, ग्रेड और बेंचमार्क का एक खतरनाक जुनून सवार है। क्लास का टॉपर और टॉप दो या तीन बच्चे बाकी पूरी क्लास के लिए आदर्श की तरह प्रस्तुत किए जाते हैं। बाकी बच्चों को उनके जैसा बनने के लिए प्रेशराइज किया जाता है। बेचारे भोले-भाले बच्चे क्या करें! अपने क्लासमेट्स को पछाड़ने के लिए, बिना सोचे समझे फैक्ट्स एंड फिगर्स को याद किए जाते हैं। लेसन – डोंट फोर्स
3) भारतीय शिक्षा प्रणाली का ओवर-कमर्शियलाइजेशन (अति-व्यावसायीकरण): पाकिस्तान के शायर इब्ने इंशा 1970 की अपनी एक कविता में कहते हैं, इल्म बड़ी दौलत है। तू भी स्कूल खोल। इल्म पढ़ा। फीस लगा। दौलत कमा। फीस ही फीस। पढ़ाई के बीस। बस के तीस। यूनिफॉर्म के चालीस। खेलों के अलग। वैराइटी प्रोग्राम के अलग। पिकनिक के अलग। लोगो के चीखने पर मत जा। दौलत कमा। उससे स्कूल खोल। उनसे और दौलत कमा…. आदि।
कविता आगे भी है, क्लियर है इशारा शिक्षा के व्यवसायीकरण पर है। भारत के कई स्कूलों की स्थापना आसान पैसा बनाने के एकमात्र उद्देश्य से की गई है। इसलिए स्टूडेंट्स को एजुकेशन देना और उन्हें बेहतर बनाना उनका प्राइमरी विजन नहीं होता है। लंबे समय में इसका नुकसान पूरे देश को उठाना पड़ता है। लेसन – कंट्रोल ग्रीड
4) दसवीं कक्षा के बाद स्टूडेंट्स की छंटनी करना: अनेकों स्कूल दसवीं कक्षा के बाद 11वीं और 12वीं का रिजल्ट सुधारने के लिए कमजोर स्टूडेंट्स की छंटनी कर देते हैं। ऐसा करने से कमजोर स्टूडेंट्स के पास कोई ऑप्शन नहीं रह जाता है, क्योंकि इस स्तर पर और किसी स्कूल में एडमिशन लेना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता है। बच्चों के कॉन्फिडेंस पर इसका जबरदस्त निगेटिव असर होता है। लेसन – बी ह्यूमन
5) कुछ विशेष सब्जेक्ट लेने के लिए मजबूर करना: ऐसा उन स्कूलों में अधिक होता है, जहां कक्षा 11 और 12 में स्टूडेंट्स की संख्या कम होती है। छोटे बैच साइज के कारण स्कूल की इनकम भी कम होती है। ऐसे में वे सभी स्टूडेंट्स को एक ही सब्जेक्ट ब्रांच चुनने के लिए प्रेशराइज करते देखे गए हैं, ताकि अधिक टीचर्स रिक्रूट ना करने पड़ें। लेसन – हेल्प डाइवर्सिटी
6) टीचर्स संबंधित: स्कूल कभी-कभी अच्छे क्वालिफाइड टीचर्स को रिक्रूट करने के बजाय इंटर्न्स या जूनियर स्टाफ से काम लेते हैं, क्योकि उन्हें सैलरी कम देनी पड़ती है। इसका स्टूडेंट्स की पढ़ाई और पर्सनेलिटी पर बुरा असर पड़ता है। स्टाफ सैलरी बचाने के लिए कई स्कूल, टीचर्स पर टीचिंग के अलावा कई एडमिनिस्ट्रेटिव कामों का बोझ बढ़ा देते हैं, इससे टीचर्स की टीचिंग एफिशिएंसी कम हो जाती है। लेसन – इन्वेस्ट इन इंफ़्रा
7) काउंसलर्स का ना होना: अधिकतर स्कूलों में करिअर गाइडेंस, डिसिप्लिन और साइकोलॉजिकल इशूज के लिए काउंसलर्स होते ही नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत स्टूडेंट्स के सुसाइड के मामले में वर्ल्ड कैपिटल है और अधिकतर इंडियन स्टूडेंट्स सिर्फ सात करिअर विकल्पों के बारे में जानते हैं। लेसन – इन्वेस्ट इन सपोर्ट
8) फाइनेंशियल एजुकेशन ना देना: बेस्टसेलिंग बुक रिच डैड पुअर डैड के ऑथर रोबर्ट टी कियोसाकी कहते है कि पैसे का लालच और पैसे की कमी दोनों मिलकर दुनिया की सभी बुराइयों की जड़ है। फिर भी शायद ही कोई इंडियन स्कूल बच्चों को बेसिक लेवल का भी फाइनेंस मैनेजमेंट सिखाते होंगे। जैसे कि सेविंग का इम्पॉर्टेंस। लेसन – सीड द फ्यूचर वेल
आज का करिअर फंडा यह है कि एक समग्र एप्रोच से स्कूल कहीं बेहतर परफॉर्म कर सकते हैं।