रात को दरवाजे पर जोर से दस्तक हुई। उसके टूटते ही कई लोग बंदूक और तलवार लेकर घुस आए। पिता जी को मेरे सामने 5 गोली मार दी। वह गिरते, तब तक दोनों भाई-भाभियां और हम आए। उन्होंने गोलियों की बौछार कर दी। मेरे चेहरे पर गोली लगी और मैं गिर गया। मेरे ऊपर उनके शव गिर गए। सुबह लोगों ने उठाया। मेरा परिवार खत्म हो चुका था।
25 साल बाद भी यह कहते-कहते विमलेश राजवंशी सिहर उठते हैं। उनकी उम्र 10 से 11 साल की रही होगी। वे उस दिन की घटना बताते हैं। कहते हैं- रात के करीब 8 बजे होंगे। हम लोग खाना खाकर सोने की तैयारी में थे, कच्चे मकान की किवाड़ तोड़कर बंदूक और तलवारों से लैस लोग घुस आए। घर में कोहराम मचा था। वे उसी स्मारक के पास थे, जिस पर उनके पिता, भाइयों और भाभियों के नाम दर्ज हैं।
यह स्मारक है दलित बस्ती में विनोद पासवान के घर में। इस घर में 7 लोगों को मार दिया गया। यह स्मारक 25 साल बाद भी आजाद भारत के सबसे बड़े नरसंहार की याद दिलाता है, जिसने पूरे देश को हिला दिया था। उस समय राष्ट्रपति रहे केआर नारायणन ने इस हत्याकांड को ‘राष्ट्रीय शर्म’ करार दिया था।
स्मारक में गांव के 58 लोगों के नाम दर्ज हैं, जिन्हें जातीय हिंसा में बर्बर तरीके से मार दिया गया था। एक घंटे तक मौत दलित बस्ती में नाचती रही। चार परिवारों का नामोनिशान तक मिट गया। औरत-बच्चों को घरों में घुसकर गोली मारी गई। तलवार से काट डाला गया। गुस्से और नफरत में एक साल के दुधमुंहे बच्चे तक को नहीं छोड़ा गया।
1 दिसंबर को बरसी है, हर साल आती है और बीत जाती है, लेकिन 25 साल बाद भी लोग न्याय के इंतजार में हैं। इस हत्याकांड में जो बचे गए, वे आज भी उस रात की घटना याद करके सिहर उठते हैं। सोन नदी के किनारे बसे इस गांव में मरने वालों में 27 महिलाएं और 16 बच्चे भी शामिल थे। उन 27 महिलाओं में से करीब दस महिलाएं गर्भवती भी थीं। इस नरसंहार में नाम आया था रणवीर सेना का। हालांकि यह सेना अब नहीं बची। निशाना बने थे- महतो, राजवंशी, पासवान, मल्लाह, रविदास जाति के परिवार।
विमलेश राजवंशी और विनोद पासवान की तरह इस नरसंहार में अपनी पत्नी, बहू और बेटी को खोने वाले लक्ष्मण राजवंशी अपने घर को दिखाते हैं। कहते हैं पहले यहां छह फीट की दीवार थी। मैं दीवार कूदकर भाग गया, इसलिए बच गया। पहला हमला मेरे ही घर पर बोला गया था। 100 से अधिक हत्यारे थे। मेरी आंखों के सामने पत्नी को गोली मारी गई। बहू एक महीने पहले ही गवना कराकर आई थी। बेटी की एक सप्ताह बाद बारात आने वाली थी। दोनों को गोली मारी गई। जब नहीं मरीं तो गर्दन काट दी गई।
लक्ष्मण अब बुजुर्ग हो गए हैं, नरसंहार के समय उनकी उम्र 35 साल की रही होगी। अब उम्र की वजह से थोड़ा कम सुनते हैं, लेकिन नरसंहार की बात आते ही कहते हैं- अब तक न्याय नहीं मिला। कहते हैं-मैं गवाह हूं, मुझे खरीदने की कोशिश की जाती है। खेत का ऑफर दिया जाता है, लेकिन मैंने मना कर दिया। मुझे न्याय चाहिए। सब बिके हुए हैं, अब सुप्रीम कोर्ट की पुकार होगी।
सीटी बजी और थम गया नरसंहार
लक्ष्मण बताते हैं कि एक घंटे तक गांव में कोहराम मचा रहा। ज्यादातर पुरुष भाग गए। घर में बच्चे और महिलाएं ही रह गई थीं, सब ने सोचा था कि बच्चों और महिलाओं को कौन मारेगा, लेकिन इसका उल्टा हुआ। हत्यारे घरों में घुसकर महिला, बच्चों और बुजुर्गों को गोली मारने लगे। महिलाओं के पेट में चाकू गोदे गए थे ताकि बच्चा हो तो वो भी मर जाए। एक घंटे मौत नाचती रही, फिर सीटी बजाना शुरू हुई और सब भाग गए।
वो दरवाजा पीट रहा था, बोला- चाचा सब मारे गए हैं
जिस विनोद पासवान के घर में स्मारक बना है, उससे कुछ दूरी पर रहने वाली सोनमती देवी कहती हैं। हाल ही में मेरी शादी हुई थी। 1 दिसंबर की सुबह विनोद दौड़कर मेरे घर आया था। वह दरवाजा पीटकर मेरे ससुर से बोला- चाचा चलिए, सबको मार दिया है। मेरे ससुर ने डरकर दरवाजा खोला। वहां गए तो आंगन में विनोद के परिवार के 7 लोगों की लाशें पड़ी थीं। विनोद की पत्नी मायके गई थी, इसलिए वह बच गई थी। पास के ही घर में नौ लोगों की लाश थी, जबकि महेंद्र चौधरी के परिवार के सभी 5 लोगों की हत्या कर दी गई थी। महेंद्र के घर तो कोई नहीं बचा। बाद में बेटी और दमाद आकर यहां रहने लगे।
जिस नाव से आए, उसके नाविकों को भी मार डाला
गांव के ही बुजुर्ग रामकृष्ण बताते हैं कि इस बस्ती को नेताजी सुभाषचंद्र के नाम पर सुभाषनगर कहा जाता था। इस हत्याकांड के बाद यह नाम भी खत्म हो गया। वे कहते हैं कि हत्यारे तीन नावों से सोन नदी को पार करके गांव में घुस थे। सबसे पहले उन नाविकों की हत्या कर दी, जिनके सहारे उन्होंने नदी को पार किया था। सोन नदी में मछली मार रहे लोगों की गर्दन रेत दी।
वो कैसे बच गए, इस पर रामकृष्ण कहते हैं कि जब गोली की आवाज आने लगी तो मैं घर के पीछे से भाग गया। खेतों छिपा रहा, सुबह जब गांव आया तो देखा कि आसपास के घर से बच्चों और महिलाओं की लाशें निकल रही हैं।
एक साथ जली थीं 58 चिताएं
रामकृष्ण कहते हैं कि स्मारक तो बाद में बना, लेकिन यहीं पर दो दिनों तक 58 लोगों की लाशें पड़ी रहीं। गांव वालों ने अंतिम संस्कार नहीं करने दिया था। 3 दिसंबर को उस समय मुख्यमंत्री रहीं राबड़ी देवी आईं। सरकार ने नौकरी और हर मृतक पर 2-2 लाख देने की घोषणा की तब ट्रॉली से शवों को उठाकर सोन नदी के किनारे ले जाया गया। एक साथ ही 58 चिताएं चलाई गईं।
सभी बरी हुए, अब मामला सुप्रीम कोर्ट में
सात अप्रैल 2010 को पटना की एक विशेष अदालत ने लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में 16 अभियुक्तों को फांसी और दस को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। वहीं 2013 में निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए पटना हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिया था। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।