गांधी जी की टोपी कुचलने पर 23 पुलिस वालो को जलाया जिन्दा किउ आइये जाने :

गांधी टोपी कुचलने पर जला दिए गए 23 पुलिसवाले:चौरी-चौरा के बाद गांधीजी ने रोका असहयोग आंदोलन; क्या इससे 25 साल टल गई आजादी

10 फरवरी 1922 को गुजरात के बारडोली तालुका में महात्मा गांधी सुबह की प्रार्थना के बाद से ही चुपचाप कोने में बैठे थे। नेहरू जेल में थे और पटेल समेत बाकी कार्यकर्ताओं के बीच चर्चा का एक ही मुद्दा था- 4 फरवरी 1922 को UP में हुआ चौरी-चौरा कांड। ये वही कांड था जिसमें गुस्साई भीड़ ने 23 पुलिसवालों को जिंदा जला दिया था।

उस वक्त असहयोग आंदोलन चरम पर था और देशभर से भरपूर समर्थन मिल रहा था। गांधीजी अचानक उठे और उन्होंने असहयोग आंदोलन को खत्म करने का प्रस्ताव रख दिया। कुछ कार्यकर्ता खामोश रहे, लेकिन ज्यादातर ने इससे साफ इनकार कर दिया।

गांधीजी चुप हो गए, लेकिन दो दिन बाद यानी 12 फरवरी को असहयोग आंदोलन को वापस लेते हुए 5 दिन के उपवास पर चले गए।

आज 12 फरवरी 2023 है यानी असहयोग आंदोलन वापस लिए आज ठीक 101 साल पूरे हो चुके हैं।

गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया तब सुभाष चंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू, सीआर दास और रवींद्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों ने उनके इस फैसले की तीखी आलोचना की थी। एक तबके का आज भी मानना है कि अगर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस नहीं लिया होता तो हमें आजादी के लिए 1947 तक का इंतजार नहीं करना पड़ता।

अंग्रेजो का असहयोग न करने की प्रतिज्ञा क्यों लिया

ये साल 1919-20 का दौर था। अंग्रेजों के खिलाफ लोगों में रॉलेट एक्ट का गुस्सा था ही, उसके ऊपर जलियांवाला बाग हत्याकांड हो गया। रॉलेट एक्ट के तहत अंग्रेज बिना कानूनी प्रक्रिया का पालन किए ही किसी को भी जेल में रख सकते थे। इसी सब के बीच देश में गांधी के स्वदेश और खादी का जोर भी चरम पर था। अगस्त 1920 में असहयोग आंदोलन की अनौपचारिक शुरुआत हुई।

4 सितंबर 1920 को कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यहां तय हुआ कि अब से उन सभी सामानों, व्यवस्थाओं और संस्थाओं का बहिष्कार किया जाएगा, जिसकी मदद लेकर अंग्रेज हम पर ही शासन कर रहे थे।

ऐलान किया गया कि अगर लोग चाहते हैं कि अंग्रेज भारत छोड़ दें तो स्कूल, कॉलेज और कोर्ट-कचहरी का बहिष्कार करें। अंग्रेजी सामान खरीदना बंद करें और अंग्रेजों को टैक्स न दें। असहयोग आंदोलन को मुस्लिम संगठनों द्वारा चलाए जा रहे खिलाफत आंदोलन का भी साथ मिला।

गांधीजी का आह्वान इतना जोरदार था कि स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे। वकीलों ने कचहरी जाना बंद कर दिया और मजदूर फैक्ट्री छोड़कर आंदोलन की राह पकड़ने लगे। देश भर में विदेशी सामान जलाए जाने लगे। अनुमान लगाया जाता है कि उस समय देश भर में तकरीबन 400 हड़तालें हुईं। आंदोलन सफल हो रहा था, तभी चौरी-चौरा में ग्रामीणों ने पुलिस थाने में आग लगाकर 23 पुलिसवालों को आग के हवाले कर दिया

चौरी-चौरा में भीड़ के भड़क जाने के पीछे तीन अहम वजह मिलती हैं…

1. मुंडेरा बाजार का मालिक संत बक्स: चौरी-चौरा की घटना से करीब 10-12 दिन पहले डुमरी के करीब 30 से 35 कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने मुंडेरा बाजार में धरना दिया। इस बाजार का मालिक था संत बक्स सिंह। संत बक्स के आदमियों ने वॉलंटियर्स को बाजार से खदेड़ दिया।

चौरी-चौरा की घटना से 5 दिन पहले, यानी 31 जनवरी को कार्यकर्ता 4,000 की भीड़ के साथ लौटे और इसी बाजार में बड़ी सभा हुई। 2 फरवरी को भगवान अहीर, नजर अली, लाल मुहम्मद सांई के साथ करीब 50 कार्यकर्ता फिर धरना देने बाजार पहुंचे तो संत बक्स के आदमियों ने उनके साथ मारपीट की। बाद में पुलिस ने भी भगवान अहीर और दो अन्य लोगों को थाने ले जाकर पीटा।

2. थानेदार गुप्तेश्वर सिंह: आरोप है कि गुप्तेश्वर सिंह ने संत बक्स सिंह के कहने पर ही भगवान अहीर के साथ मारपीट की थी। इसे लेकर लोगों में काफी गुस्सा था। 4 फरवरी 1922 को शनिवार का दिन था। मारपीट का विरोध करने के लिए मुंडेरी बाजार के पास करीब 800 लोग जमा हो गए। उधर गुप्तेश्वर सिंह ने गोरखपुर से और फोर्स बुला ली, जिनके पास बंदूकें भी थीं।

पुलिस की तरफ से भीड़ से बात करने के लिए संत बक्स सिंह के यहां काम करने वाला कर्मचारी अवधू तिवारी पहुंचा। उसे देखकर लोगों का गुस्सा और भड़क गया। दूसरी तरफ भीड़ भी बढ़ती ही जा रही थी। इसके बाद लोग थाने के सामने प्रदर्शन करने लगे। इसी बीच गुप्तेश्वर ने इस प्रदर्शन को गैरकानूनी घोषित कर दिया और कार्रवाई करने की धमकी दे डाली।

3. गांधी टोपी: प्रदर्शन को गैरकानूनी घोषित करते ही पुलिस और भीड़ के बीच झड़प शुरू हो गई। इसी दौरान एक सिपाही ने बड़ी गलती कर दी। उसने एक आंदोलनकारी की गांधी टोपी उतार ली उसे पैर से कुचलने लगा। यही वो पल था जब मामला हाथ से निकल गया और तोड़फोड़ शुरू हो गई। हिंसा देखकर गुप्तेश्वर के आदेश पर जुलूस में शामिल लोगों पर फायरिंग कर दी गई। इसमें 11 आंदोलनकारियों की मौत हो गई। करीब 50 घायल हो गए।

अंग्रेज सिपाहियों की गोलियां खत्म हो गईं, और भागकर गए थाने

फायरिंग के बाद भीड़ पीछे हटी और रेल की पटरियों पर पहुंच गई। इसके बाद पत्थरबाजी शुरू हो गई। उधर फायरिंग करते-करते पुलिसवालों की गोलियां खत्म हो गईं। अब भीड़ ने पुलिसवालों पर धावा बोल दिया।

भीड़ से बचने के लिए 23 पुलिसवालों ने खुद को थाने के लॉकअप में बंद कर लिया। इसी बीच कुछ आंदोलनकारियों ने किसी दुकान से केरोसीन तेल का टिन उठा लिया। थाने पहुंचकर मूंज और घास-पतवार रखकर थाने में आग लगा दी। उधर दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने भागने की कोशिश की, तो भीड़ ने उसे भी पकड़कर आग में फेंक दिया।

पुलिस कुछ लोग हिंसा मे जिन्दा जल गए :

सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह, रघुवीर सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, मंगरू चौबे, रामबली पाण्डेय, इन्द्रासन सिंह, रामलखन सिंह, मर्दाना खां, जगदेव सिंह और जगई सिंह।

उस दिन अपना वेतन लेने के लिए थाने पर आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग में फेंक दिया। कुल मिलाकर 23 पुलिसवाले जिंदा जलाकर मार दिए गए। हालांकि थाने के पास ही रह रहे गुप्तेश्वर सिंह की पत्नी और बच्चों को भीड़ ने हाथ भी नहीं लगाया।

हालांकि तब कई बड़ी हस्तियां गांधी के फैसले से असहमत थीं। नाराजगी जाहिर करते हुए सुभाष चंद्र बोस ने कहा था, ‘जब जनता का उत्साह अपने चरम पर हो, तब पीछे हटने का आदेश देना किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है।’

सीआर दास का कहना था कि असहयोग आंदोलन वापस लेना बड़ी गलती है। गांधी जी के इस फैसले से पॉलिटिकल वर्कर्स का मनोबल काफी हद तक गिरा है। मोतीलाल नेहरू भी गांधी के फैसले से खासा नाराज थे। यही वजह रही कि सीआर दास और मोतीलाल नेहरू ने जनवरी 1923 में स्वराज पार्टी की नींव रखी।

Leave A Reply

Your email address will not be published.