2405 को फांसी की सजा…फंदे तक 8 ही पहुंचे:22 साल में 91% की फांसी माफ, फिर भी ट्रायल कोर्ट थोक के भाव देते हैं फांसी:
भारत में 2022 में ट्रायल कोर्ट्स ने 165 लोगों को फांसी की सजा सुनाई। ये आंकड़ा पिछले 22 साल का सर्वाधिक है…लेकिन पिछले 7 साल के आंकड़े बताते हैं कि औसतन हर साल 130 से ज्यादा लोगों को भारत में फांसी की सजा मिलती है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इनमें से कितने लोग वाकई में फांसी के तख्ते तक पहुंचते हैं?
जवाब चौंकाने वाला है। पिछले 22 सालों में भारत में ट्रायल कोर्ट्स ने कुल 2045 लोगों को फांसी दी…लेकिन इन 22 सालों में सिर्फ 8 लोगों को ही वाकई फांसी दी गई।
इन 2045 में से 91% से ज्यादा लोगों को फांसी से राहत मिल गई। 454 लोग तो रिहा ही हो गए।
हालांकि, ट्रायल कोर्ट में सजा से लेकर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट या दया याचिका के जरिये रिहाई तक का सफर बहुत लंबा होता है।
यानी ट्रायल कोर्ट्स में थोक के भाव मौत की सजा दी जा रही है, लेकिन इससे सिर्फ हायर कोर्ट्स में पेंडिंग केसों की संख्या बढ़ाने का काम कर रहे हैं।
फांसी की सजा पाए कई कैदियों की फांसी तो सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ इस आधार पर माफ हो गई कि उनके ट्रायल में हुई देरी बहुत ज्यादा थी और हर दिन मौत का ये इंतजार उनके साथ अमानवीय व्यवहार था।
दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (NLU) के प्रोजेक्ट 39A की रिपोर्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि फांसी सिर्फ एक फैसला नहीं एक लंबी कानूनी प्रक्रिया है जो औसतन 20-22 साल तक खिंच जाती है।
देश में मौत की सजा और इसकी प्रक्रिया पर पढ़िए हमारी रिसर्च रिपोर्ट…
पहले समझिए…भारत में फांसी की पूरी प्रक्रिया क्या है
22 साल के आंकड़े बताते हैं सिर्फ 0.33% कैदी ही फांसी के तख्ते तक पहुंचे
पिछले 22 साल में 2045 लोगों को ट्रायल कोर्ट्स ने फांसी की सजा सुनाई।
लेकिन इन 2045 लोगों में से 454 को तो कानूनी प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में रिहा कर दिया गया। यानी उनके खिलाफ बना मामला ही खारिज हो गया।
1412 लोग ऐसे थे जिनकी सजा हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में कम कर दी गई। या उनका मामला दोबारा ट्रायल कोर्ट को भेज दिया गया।
दिसंबर, 2022 के आंकड़े बताते हैं कि देश में 539 कैदी ऐसे हैं जो कानूनी प्रक्रिया के किसी न किसी चरण में अभी फांसी का इंतजार कर रहे हैं।
इनमें से 455 लोगों का केस हाईकोर्ट में पेंडिंग है। 73 लोगों की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई बाकी है। 4 लोगों की दया याचिका राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के पास पेंडिग हैं।
वहीं 6 लोग ऐसे भी हैं जो दया याचिका खारिज होने के बाद अब फांसी की तारीख तय होने का इंतजार कर रहे हैं।
पहली सजा से माफी या फांसी तक औसतन 21 साल लग जाते हैं
वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता बताते हैं कि कोर्ट की नजर में हर केस की बराबर अहमियत होती है। इस वजह से फांसी की सजा वाले मामलों को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में फास्ट ट्रैक करने का अलग प्रावधान नहीं है।
ऐसे मामले जिनमें फांसी की सजा मिलने का प्रावधान होता है, औसतन ट्रायल कोर्ट में ही उनकी सुनवाई 5 साल तक खिंच जाती है।
हाईकोर्ट में इस मामले के निपटारे में औसतन डेढ़ साल तक लग जाते हैं, जबकि इसके बाद औसतन 2 साल सुप्रीम कोर्ट में मामला निपटने में लगते हैं।
ऐसे में फांसी की सजा मिलने के बाद सुनवाई और तारीखों के चक्कर में ये कैदी कई सालों तक जेल में ही रह जाते हैं। न्यायिक प्रक्रिया के सारे विकल्प खत्म हो जाएं तो दया याचिका का ऑप्शन बचता है।
दया याचिका पर राष्ट्रपति कब फैसला लेंगे इसका कोई टाइमफ्रेम तय नहीं है। के.आर. नारायणन ऐसे राष्ट्रपति थे जिन्होंने अपने कार्यकाल में सिर्फ 1 दया याचिका पर विचार किया।
22 साल में 8 फांसी पर चढ़े पहली सजा से फंदे तक औसत सफर- 7 साल, 10 महीने
पिछले 22 सालों में 8 लोगों को फांसी पर चढ़ाया गया। इनमें से 5 प्रमुख केसों का आकलन बताता है कि पहली बार फांसी की सजा मिलने से वाकई में फंदे तक पहुंचने में औसतन 7 साल, 10 महीने का वक्त लगा।
निर्भया केस 2013 में फांसी की सजा मिली 2020 में फंदे पर
केस 2012 का था। 4 दोषियों मुकेश सिंह, विनय शर्मा, पवन गुप्ता और अक्षय कुमार सिंह को 13 दिसंबर, 2013 को पहली बार फांसी की सजा सुनाई गई।
मार्च, 2020 में इन चारों को फांसी दी गई।
पहली सजा से फंदे तक पहुंचने में 7 साल लगे।
मुंबई धमाके याकूब मेमन को 2006 में सजा सुनाई गई 2015 में फांसी दी
1993 के मुंबई धमाकों के दोषी याकूब मेमन को 12 सितंबर, 2006 को पहली बार कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी।
जुलाई, 2015 में उसे फांसी दी गई।
पहली सजा से फंदे तक पहुंचने में 9 साल लगे।
संसद हमला अफजल गुरू को 2002 में सजा सुनाई गई फंदे तक 2013 में पहुंचा
2001 में हुए संसद हमले के दोषी मोहम्मद अफजल गुरू को 18 सितंबर, 2002 में ट्रायल कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी।
फरवरी, 2013 में उसे फांसी दी गई।
पहली सजा से फंदे तक पहुंचने में 11 साल लगे।
मुंबई हमला कसाब 2010 में सजा सुनाई गई 2012 में फांसी दी गई
2008 के मुंबई हमलों के दोषी अजमल कसाब को 6 मई, 2010 को पहली बार फांसी की सजा सुनाई गई थी।
नवंबर, 2012 में उसे फांसी दी गई।
पहली सजा से फंदे तक पहुंचने में 2 साल लगे।
ये सजा सुनाने से फांसी दिए जाने तक में लगा सबसे कम वक्त है।
धनंजय केस रेप के दोषी को 1991 में सजा सुनाई 2004 में फांसी दी गई
1990 में 14 साल की लड़की की हत्या और रेप के दोषी धनंजय चटर्जी को 1991 में पहली बार फांसी की सजा सुनाई गई थी।
अगस्त, 2004 में उसे फांसी दी गई।
पहली सजा से फंदे तक पहुंचने में 13 साल लगे।
फांसी का सबसे लंबा इंतजार…27 साल
बेअंत सिंह के हत्यारे की दया याचिका ही 10 साल से पेंडिग
फरवरी, 2022 में गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने बताया था कि राष्ट्रपति के सामने 4 दया याचिकाएं पेंडिंग हैं। इनमें से एक 2012 से, दूसरी 2015 से और बाकी दो 2021 से लंबित हैं।
2012 से राष्ट्रपति के पास पड़ी दया याचिका पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में शामिल रहे बलवंत सिंह राजाओना की है।
बलवंत को 2007 में CBI की स्पेशल कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई थी। 2012 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रंबधक कमेटी ने उसकी तरफ से राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दाखिल की थी, लेकिन अभी तक इस दया याचिका पर फैसला नहीं लिया गया है।
बलवंत को दिसंबर 1995 में गिरफ्तार किया गया था। पिछले 27 सालों से वह जेल में है। इस दौरान उसे सिर्फ 1 घंटे की पेरौल मिली है।
अक्टूबर, 2022 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि बलवंत सिंह की दया याचिका पर फैसला सुरक्षा कारणों से टाल दिया गया है।
कोल्हापुर की किलर सिस्टर्स की दया याचिका पर फैसले में देरी…इसी आधार पर फांसी उम्रकैद में बदली
कोल्हापुर में 13 बच्चों की किडनैपिंग और 6 बच्चों की हत्या की दोषी रेणुका शिंदे और सीमा गवित की दया याचिका राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 2014 में खारिज कर दी थी, लेकिन फिर भी इन्हें फांसी नहीं हुई।
इन दोनों बहनों ने 1990 से 1996 के बीच बच्चों की किडनैपिंग और हत्याओं को अंजाम दिया था। इन्हें 1996 में कोल्हापुर पुलिस ने गिरफ्तार किया था।
2001 में सेशन कोर्ट ने इन्हें फांसी की सजा सुनाई। 2004 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी दोनों की मौत की सजा की पुष्टि कर दी। 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा।
दोनों ने 2008 में महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास दया याचिका दायर की, जो 2012-13 में खारिज हुई। इसके बाद 2014 में राष्ट्रपति के पास दया याचिका लगाई गई, उसे भी ठुकरा दिया गया।
इसके बाद दोनों बहनें फिर से बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचीं। उन्होंने कोर्ट से मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की मांग करते हुए कहा कि उनकी दया याचिका पर फैसला लेने में बहुत ज्यादा देरी हुई है। मौत के डर में जीने की वजह से वे मानसिक यातना से गुजरी हैं।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने दोनों की दया याचिका निपटाने में ढिलाई बरती है और उनकी मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। हालांकि, दोनों को अपनी अंतिम सांस तक जेल में ही रहना होगा।
2014 में दया याचिका में फैसले देरी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 15 लोगों की फांसी उम्रकैद में बदली
मौत की सजा पाए 15 कैदियों ने अपनी सजा कम करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन दायर की थी। 2014 में तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम, जस्टिस रंजन गोगोई और शिवा कीर्ति सिंह की बेंच ने इन सभी पिटीशन पर एक साथ सुनवाई की।
दरअसल, इन कैदियों की दया याचिकाएं खारिज कर दी गई थीं। इसके बाद उन्होंने कोर्ट से मांग की थी कि दया याचिका पर फैसले में अत्यधिक देरी होने और मानसिक बीमारी की वजह से इनकी मौत की सजा कम किया जाए।
पिटीशन पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा कि दया याचिका खारिज करने में अत्यधिक और अस्पष्ट देरी प्रताड़ना के बराबर है। कैदियों को हर दिन लगने वाला मौत का डर संविधान के आर्टिकल 21 (जीने के अधिकार) का उल्लंघन है। ये दोषी की मौत की सजा को कम करने के लिए पर्याप्त है।
इस मामले में कोर्ट ने 13 लोगों की मौत की सजा दया याचिका पर फैसले में देरी होने की वजह से कम कर दी। वहीं 2 लोगों का मृत्युदंड मानसिक बीमारी की वजह से कम कर दिया गया। कानूनी भाषा में इस मामले को Shatrughan Chauhan and Another v. Union of India and Others (2014) नाम से जाना जाता है।
भारत में कैपिटल पनिशमेंट के खिलाफ भी बहस बहुत लंबे समय से चली आ रही है। दुनिया में अभी 53 देश ऐसे हैं जहां मौत की सजा दी जाती है, जबकि 111 देशों ने इसे पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है।
प्रतिबंध लगाने वाले देशों में मौत की सजा को अमानवीय माना गया और यह भी कहा गया कि यह मनुष्य के जीवन के अधिकार का उल्लंघन है।
भारत में सुप्रीम कोर्ट लगातार फांसी की सजा के फ्रेमवर्क को लेकर मामला उठाता रहा है। 2022 में भी चीफ जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि फांसी की सजा कब दी जाए और इसका आधार क्या हो इस पर ट्रायल कोर्ट्स की समझ को बेहतर किए जाने की जरूरत है।
कुछ मामले ऐसे भी हैं जहां दया याचिका या कानूनी प्रक्रिया में बहुत ज्यादा वक्त लगने के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला है।