इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के रजनेश बनाम नेहा व अन्य के फैसले का हवाला देते हुए एक अहम टिप्पणी की है। कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में आदेश की तारीख से ही गुजारा भत्ता देने में निचली अदालत की शक्तियों पर रोक नहीं लगाई है, बशर्ते ऐसा करने के लिए परिस्थितियां और कारण अनुकूल हों। यह आदेश न्यायमूर्ति ज्योत्सना शर्मा ने सहारनपुर की याची रंजीता उर्फ रवीता की याचिका को खारिज करते हुए दिया है। रंजीता ने सहारनपुर परिवार न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के विरुद्ध याचिका दायर की थी।
सहारनपुर परिवार न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याची/पत्नी रंजीता को आदेश की तिथि से प्रतिमाह सात हजार रुपये गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। इस पर रंजीता की ओर से सहारनपुर के परिवार न्यायालय के आदेश को हाईकोर्ट में दो आधारों पर चुनौती दी गई थी। पहला, कि भरण पोषण की राशि को आवेदन की तिथि से भुगतान किया जाए। निचली अदालत ने आदेश की तिथि से भुगतान करने का आदेश पारित किया था। यह सही नहीं है।
याची का पति सबइंस्पेक्टर है। मासिक कमाई के आधार पर भरण पोषण की राशि बढ़ाई जाए। परिवार न्यायालय ने सात हजार रुपये भरण पोषण की राशि तय की थी। इसके लिए याची रंजीता की ओर से तर्क दिया गया कि सुप्रीम कोर्ट ने रजनेश बनाम नेहा के मामले में आवेदन की तारीख से भरण पोषण के भुगतान का आदेश दिया है। उसके आदेश का पालन किया जाए। जबकि, प्रतिवादी पति की ओर से तर्क दिया गया कि मामले में उसका काफी व्यय हुआ है। इसके अलावा वह अपनी इकलौती बेटी की देखभाल भी कर रहा है।
कोर्ट ने कहा कि पारिवारिक मामले में प्रतिवादी यानी पति ही परिस्थितियों का शिकार बना और उसकी पत्नी किसी भी रखरखाव राशि की हकदार नहीं थी। इसके बावजूद परिवार न्यायालय ने गुजारा भत्ता के तहत सात हजार रुपये प्रतिमाह की राशि तय की, जो सही है। निचली अदालत का दृष्टिकोण यथार्थवादी और निर्णय विवेकपूर्ण है। इसमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है।