रोहित सेठ
ये शहर भी क्या शहर है
हवाओ में धुंआ है ,
फिजाओ में जहर है।
जर्रे – जर्रे में कुदरत समेटे हुए ,
कुछ दूर पर मेरा गांव है ,
आंगन में सुहानी धूप है ,
पीपल की ठंडी छाव है ,
बड़ी मासूम सी है ये जिंदगी
शहर में रहूं और गांव भी चाहिए ।
बस बैठा हूँ ऊची इमारतों में
पेड़ो को काटू और छाँव भी चाहिए
धुंए की चादर ने लपेट रखा है
प्रदूषण ने इस कदर विवश कर रखा है
पर्यावरण बचाओ – बचाओ की जब करते है बात सब कुछ अपनी जान पर बन आ रखा है
मिलावट के बगैर हवा भी हासिल नही
सांसो में हमने धुंआ भर रखा है