स्वामी ओमा द अक्  द्वारा की गई आदिपुरुष फिल्म की समीक्षा . 

रोहित  सेठ

 

 

 

 

 

 

वाराणसी।  कहते हैं भोजन पकाने वाले के विचार भोजन में चुपचाप शामिल हो जाते हैं,इसी कारण घर में किसी प्रिय के हाथ से बना भोजन जहाँ हमें स्वस्थ रखता है वहीं बाज़ारू भोजन हमें बुरी तरह रोगी बना देता है l वास्तव में यह बात केवल भोजन में नहीं अपितु हर उस चीज पर लागू होती है जो हमें परोसी जा रही हो|

भारत मे ऐसा कोई नहीं होगा जिसमें “राम” का नाम न सुना हो, हिंदुओं के लिए राम परमब्रम्ह हैं, मुसलमानों के लिए हिन्दुस्तान के ईमाम (नायक) बुल्के जैसे ईसाइयों के लिए राम विश्व साहित्य के सबसे बड़े किरदार हैं |तो गुरु गोविंद साहब के लिए ईश्वरीय प्रकाश,कुल मिला कर “राम भारत का हृदय हैं” और हृदय सारे शरीर का बोझ उठाने का सामर्थ्य रखते हुए भी अत्यंत कोमल होता हैं, यही कारण हैं की राम की परिकल्पना भारत में “नव नील नीरद सुंदरम” से की गई है l

बलिष्ठ देह,गज्झिन मूछें,कंटीली दाढ़ी,समुराई की तरह बंधे बाल,निस्तेज आंखें,कठोर वाणी के साथ राम का छद्म रूप धरे दक्षिण के सुपरस्टार “प्रभाष” जब बडबोले तुकबंद “मनोज मुंतसिर” द्वारा रचित “सी ग्रेड” के छिछले संवाद बोलते हैं तो सिनेमा हॉल के अंधेरे में ही एक भारतीय को मुंह छुपाने का जी करने लगता है l

न मालूम क्या सोच कर “टी सीरीज एंड पार्टी” ने पांच सौ करोड़ का ये निकृष्ट माल “अदिपुरुष” के नाम से दर्शकों के बीच परोसा है,जिसे देख कर केवल इस कंपनी पर “मानहानि” का दावा करने का जी चाहता है..l

“रामायण” कहने मात्र से हम सब की आंखों के आगे प्रेम और प्रतीक्षा की एक मधुर गाथा उपस्थित हो जाती है,एक ऐसी गाथा जिसका एक एक चरित्र ईश्वरीय आभा से दमक रहा है,एक ऐसी कथा जिसे बार बार कहा गया,वाल्मकी या कालीदास ने संस्कृत में,तुलसीदास ने अवधी में,राधेश्याम ने हिंदी में,प्रेमचंद ने उर्दू में इस कथा को कह कर साहित्य और भक्ति के संसार में अपना स्थान बनाया,तो “रामानंद सागर” में १९८७ में दूरदर्शन पर उसी रामायण को कैमरे की कलम से लिख कर अपना जीवन धन्य कर लिया,एक ऐसा सीरियल जिसके प्रत्येक अभिनेता ने देवत्व की ऊंचाई को छू लिया था एक समय में ( कुछ हद तक आज भी) यहां तक कि रावण भी जिसे “अरविंद त्रिवेदी” ने जीवित किया था उसका प्रभावशाली व्यक्तित्व आज तक दमकता है l उसके ठीक उलट इस “फूहड़ फिल्म” में रावण “मार्वल पिक्चर्स ” की ऑफिस के पड़े “डस्टबीन” जैसा लगता है l यद्धपि सैफ ने मेहनत अच्छी की पर स्क्रिप्ट और संवाद ही नपुंसक थे l

“कृति सेनन” उस युग की अभिनेत्रियों में हैं जहां “विविधता” का पूर्णतः लोप हो चुका है,सभी अभिनेत्रियां अब एक जैसी ही दिखती हैं l नीरस, कठोर और मादक,तो कुल मिला कर कृति पौराणिक रूप से “सुपर्णखा” अधिक दिख रही थीं ना की “सीता”( उस पर अभिनय का तो यह स्तर था की उसे १० में १ देने का भीं मन नही हुआ) उससे अधिक सीता तो फिल्म में जो “मंदोदरी” बनीं थी वह दिख रही थी,ठीक यही बात “विभीषण” ,”इंद्रजीत”, “लक्ष्मण” के साथ भी लागू होती है जो कहीं से भी पौराणिक चरित्र नही लग रहे थे बल्कि “TikTok” (टिकटोक) के लफंगे लग रहे थे l उस पर सुपर्णखा तो “एकता कपूर के नाटक की विषकन्या” लग रही थी l बाली, अंगद, सुग्रीव और जामवंत समेत अनेक बंदर तो हॉलीवुड फिल्मों(प्लेनेट ऑफ ऐप्स/ गेम ऑफ थ्रोन/ निंजा) के जूठन मात्र लग रहे रहे l लंका भी उजड़ी हुई “चाइनीज सिटी” ही लग रही थी,न मालूम किन मूर्खों ने “वीएफएक्स” और “सेट” की परिकल्पना की थी l

कुल मिला कर लंका को देख कर कत्तई नहीं लगता कि यह भारत की कोई कहानी भी होगी,उस पर रावण के मुंह से गलत सलत संस्कृत में “शिव तांडव स्त्रीत ” का उच्चारण सुन कर तो परदे पर त्रिशूल फेंकने का मन हो आया था,उफ्फ! कितनी निंदा करूं,पर उस स्तर तक शब्द जा नही सकते जितना बुरा इस फिल्म को देखते हुए लग रहा था l

वास्तव में यह फिल्म एक दिन की कथा नही है,इसकी पटकथा तब शुरू हो गई थी जब एक “पश्चात दृष्टि के आध्यात्मिक लेखक” “अमीश त्रिवेदी” ने अपनी फूहड़ कृति “मेलुहा” फिर “वायुपुत्र” इत्यादि से भारतीय युवकों को अपने ही “देवताओं” को “कॉमिक कैरेक्टर” बना कर देखने का हुनर देना शुरू किया (आश्चर्य की बात बात पर प्रदर्शन करने वाले हिंदू संगठन इन मामलों में चुप्पी साधे रहते हैं) उसी का नतीज़ा है की आज हम एक ऐसी रामायण देखने को बाध्य हुए जिसमे राम को “पिटते ” हुए (युद्ध के दृश्य में राम को रावण घुसे से मार-मार कर चित्त कर देता है) देखते हैं, सच कहूं तो उस समय मुझे अपने पर शर्म आ रही थी की मैं क्या देखने आया हूं l

“आदिपुरूष” एक ऐसी फिल्म है जिसके गीत में न भक्ति है न मिठास, संगीत घिसापिटा सा, संवाद बेहूदे और भावहीन और यह सब कुकृत्य “मनोज मुंतसिर” नाम के घोर हिंदूवादी तुकबन्द (जो अपने कवि कहता है कुमार विश्वास की भांति)द्वारा किया गया है। फिल्म का निर्देशन औसत से भी कमज़ोर था… कुछ दृश्य “राजा रवि वर्मा” के पोस्टर्स से लिए गए होने से सुंदर दिखते यदि उनमें कलाकार सही होते, वास्तव में प्रभाष को रावण बनना था वह उन्हें अधिक शूट करता,हनुमान तो विदूषक लग रहे थे उस पर उनके स्तरहीन संवाद हे राम l

कुल मिला कर यह रामायण का घोर अपमान है मेरी दृष्टि में l अतः इस फूहड़ फिल्म को हर सनातनी द्वारा बायकॉट करना चाहिए lऔर इसमें शामिल लोगों की स्पष्ट निंदा करनी चहिए,क्यो की यह फिल्म ना तो रामायण को कोई आधुनिक व्याख्या दे पाती है,ना ही उसके सनातन वैभव को दोहरा पाती है,यह केवल एक धोखा भर है राम के नाम पर दिया गया एक और धोखा,वैसे भारत राम के नाम पर धोखे खाते रहने का अभ्यस्त हो चला है… क्या करिएगा,जय सिया राम l

 

ओेमा The अक्

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