भगत सिंह की सजा पर फिर सुनवाई की मांग, लाहौर हाईकोर्ट ने किया इनकार

 

 

पाकिस्तान की लाहौर हाईकोर्ट ने स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह को 1931 में सजा मिलने के मामले को दोबारा खोलने से इनकार कर दिया। दशकों पहले दायर की याचिका में भगत सिंह को मरणोपरांत राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए जाने का अनुरोध भी किया गया था। पाकिस्तान की कोर्ट ने इस पर भी आपत्ति जाहिर की है।

दरअसल, 1931 में भगत सिंह पर ब्रिटिश शासन के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में मुकदमा चलाया गया था। इसके बाद 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह को उनके साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी दे दी गई थी। इस सजा के खिलाफ 2013 में पाकिस्तान में याचिका दायर की गई थी।

 

 

तब जस्टिस शुजात अली खान ने बड़ी बेंच के गठन के लिए मामले को चीफ जस्टिस के पास भेजा था। तभी से ये याचिका लंबित है। 16 सितंबर को अदालत ने कहा कि ये मामला बड़ी बेंच के पास सुनवाई के लायक नहीं है।

याचिकाकर्ताओं के पैनल में शामिल इमतियाज राशिद कुरैशी ने कहा कि अंग्रेज अधिकारी जॉन सॉन्डर्स हत्या की प्राथमिकी में भगत सिंह का नाम नहीं था। भगत सिंह का मामला देख रहे विशेष न्यायाधीशों ने मामले में 450 गवाहों को सुने बिना ही उन्हें मौत की सजा सुना दी थी। ऐसे में उनके मामले पर फिर सुनवाई की जानी चाहिए।

 

 

 

कोर्ट में दाखिल याचिका में कहा गया था कि भगत सिंह ने पूरे सब कॉन्टीनेंट यानी उप महाद्वीप की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। सिर्फ सिख ही नहीं बल्कि हिंदू और मुस्लिम भी उनका सम्मान करते हैं। पाकिस्तान के कायद ए आजम मुहम्मद अली जिन्ना ने सेंट्रल असैंबली में स्पीच के दौरान उन्हें 2 बार श्रद्धांजलि दी थी। वो भी भगत सिंह का सम्मान करते थे।

24 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी जानी थी। भगत इस फैसले से खुश नहीं थे। उन्होंने 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को एक खत लिखा कि उनके साथ युद्धबंदी जैसा सलूक किया जाए और फांसी की जगह उन्हें गोली से उड़ा दिया जाए।

 

 

 

22 मार्च 1931 को अपने क्रांतिकारी साथियों को लिखे आखिरी खत में भगत ने कहा- ”जीने की इच्छा मुझमें भी है, ये मैं छिपाना नहीं चाहता। मेरे दिल में फांसी से बचने का लालच कभी नहीं आया। मुझे बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है।”

फांसी के लिए तय वक्त से 12 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई।

 

 

 

12 जून 1929 को ही भगत को असेंबली ब्लास्ट के लिए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी। हालांकि जो बंदूक असेंबली में भगत ने सरेंडर की थी, वो वही थी जिससे सांडर्स की भी हत्या की गई थी। इसकी भनक पुलिस को लग चुकी थी। इस केस के लिए भगत को लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट किया गया था।

लाहौर जेल पहुंचते ही भगत ने खुद को राजनीतिक बंदियों की तरह मानने और अखबार-किताबें देने की मांग शुरू कर दी। मांग ठुकरा दिए जाने के बाद 15 जून से 5 अक्टूबर 1929 तक भगत और उनके साथियों ने जेल में 112 दिन लंबी भूख हड़ताल की।

 

 

 

10 जुलाई को सांडर्स हत्या केस की सुनवाई शुरू हुई और भगत, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को मुख्य अभियुक्त बनाया गया। 7 अक्टूबर 1929 को इस केस में भगत, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई।

BBC की एक रिपोर्ट के मुताबिक भगत, सुखदेव और राजगुरु को जल्दी फांसी देने का फैसला सुरक्षा की दृष्टि से लिया गया था। जेल के नाई बरकत ने जब ये खबर कुछ कैदियों को दी तो उन्होंने उससे भगत का कोई भी सामान निशानी के तौर पर ले आने के लिए कहा। बरकत भगत की कोठरी में गया और उनका पेन और कंघा लाकर दे दिया। कैदियों ने ड्रॉ निकालकर इन्हें आपस में बांट लिया।

भगत जेल की कोठरी नंबर-14 में बंद थे। फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने आए।

 

 

 

भगत को फांसी का एहसास था, लेकिन उन्होंने मेहता से पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्यूशनरी लेनिन’ लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत ने किताब से अपना मुंह हटाए बिना कहा- सिर्फ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इंकलाब जिंदाबाद!

इसके बाद भगत ने उनसे कहा कि वो नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें। जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी। मेहता जब राजगुरु से मिले तो उन्होंने कहा- हम लोग जल्द मिलेंगे, आप मेरा कैरम बोर्ड ले जाना न भूलें।

 

 

 

भगत को पता था कि 24 मार्च को उन्हें फांसी होनी है। ऐसे में उन्होंने जेल के मुस्लिम सफाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए एक दिन पहले शाम को घर से खाना लाएं। हालांकि उन्हें वो खाना कभी नसीब नहीं हो पाया। भगत को जब पता चला कि उन्हें 23 की शाम को ही फांसी होने वाली है तो उन्होंने कहा- क्या आप मुझे इस किताब (रिवॉल्यूशनरी लेनिन) का एक चैप्टर भी खत्म नहीं करने देंगे?

जेलर चरत सिंह ने फांसी के तख्ते पर खड़े भगत के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु को याद कर लो। भगत ने जवाब दिया- पूरी जिंदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया। असल में मैंने कई बार गरीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा है। अगर मैं अब उनसे माफी मांगू तो वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है। इसका अंत नजदीक आ रहा है, इसलिए ये माफी मांगने आया है।

 

 

 

फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलाया गया था। जैसे ही तीनों फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो जेल ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…’, ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आजाद हो’ के नारों से गूंजने लगा और अन्य कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे। सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी थी। वहां मौजूद डॉक्टरों लेफ्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने तीनों के मृत होने की पुष्टि की।

चमन लाल के मुताबिक जेल के बाहर भीड़ इकठ्ठा हो रही थी। इससे अंग्रेज डर गए और जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया।

 

 

अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाना था, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया। हालांकि, लोगों को भनक लग गई और वे वहां भी पहुंच गए। ये देखकर अंग्रेज अधजली लाशें छोड़कर भाग गए। बाद में परिजनों ने उनका अंतिम संस्कार किया। तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ। पुरुषों ने विरोध में अपनी बाहों पर काली पट्टियां बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियां पहन रखी थीं।

इसके 16 साल बाद यानी 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश हुकूमत को हमेशा के लिए भारत छोड़कर जाना पड़ा।

 

 

 

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