अनुराग कश्यप की वजह से मुझे मिली फिल्म ‘खुफिया

 

 

बॉलीवुड: नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई निर्माता, निर्देशक विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘खुफिया’ के संगीत की सुर लहरियों सी लचकती, मचलती और इठलाती एक अदाकारा भी इस फिल्म में है। आंखों का जादू ऐसा कि फिल्म में मिला नाम ‘ऑक्टोपस’ बिल्कुल सटीक मालूम होता है। जब से ये फिल्म रिलीज हुई है, लोग इस कलाकार का असली नाम जानने को बेचैन हैं और ये भी जानने के लिए कि आखिर ये मोहतरमा हैं कौन? हमने इनकी तलाश की और बांग्लादेश की राजधानी ढाका में इनका ‘खुफिया’ ठिकाना भी तलाश कर निकाला।

 

 

 

उन्होंने बताया कि मैं कान फिल्म फेस्टिवल के लिए पेरिस गई हुई थी और वहां मुझे अनुराग कश्यप मिल गए। हम दोनों के कुछ उभयमित्र थे। वहां से बात शुरू हुई और बात पहुंची विशाल भारद्वाज तक। उनकी इस फिल्म की कहानी का सूत्र बांग्लादेश से जुड़ा था तो उन्हें यहां की किसी अदाकारा की तलाश थी। पहले तो मेरा ऑडिशन डिजिटली ही हुआ। लेकिन, फिर जब विशाल भारद्वाज से वर्चुअल मीटिंग हो गई और उन्हें लगा कि मैं ‘ऑक्टोपस’ के लिए ठीक हूं तो मुझे भारत बुलाकर मेरा लुक टेस्ट वगैरह लिया गया।

बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल आना उतनी बड़ी बात नहीं है और वहां मेरा आना जाना रहा है। लेकिन, मुंबई आना और किसी हिंदी फिल्म में काम करना अपने आप में एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम रहा। उस पर से विशाल भारद्वाज सरीखे निर्देशक के साथ काम करना किसी सपने के सच होने से कम नहीं रहा।

 

 

 

आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन फिल्म ‘खुफिया’ का प्रस्ताव आने से पहले ही मैं तब्बू की तकरीबन सारी फिल्में देख चुकी थी। तब्बू के अभिनय से और स्वयं तब्बू से मुझे प्रेम है, इससे मुझे कोई इंकार नहीं है। जब हम मिले तो हमें पता ही नहीं चला कि हम पहली बार मिल रहे हैं। हम दोनों ने बहुत अच्छा वक्त साथ में गुजारा और और ये आत्मीयता ही शायद बड़ी वजह रही कि मैं तब्बू के साथ परदे पर इतने अंतरंग दृश्य कर सकी। जब इन दृश्यों की शूटिंग हो रही थी तो कमरे में सिर्फ मैं, तब्बू, विशाल और फिल्म के सिनेमैटोग्राफर ही मौजूद थे और विशाल ने इनका फिल्मांकन बहुत ही सहज और विश्वसनीय तरीके से किया है।

 

 

बांग्लादेश में हिंदी फिल्में खूब देखी जाती हैं और जब मैं डेंटल कॉलेज में पढ़ रही थी तो शाहरुख खान को लेकर हद दर्जे तक दीवानी थी। अगर मेरा कोई क्रश रहा है तो वह शाहरुख खान ही हैं। आंखें बंद करती तो खुद को शाहरुख के साथ बर्फीले पहाड़ों पर स्लीवलेस ब्लाउज और शिफॉन की साड़ियों में पाती। और, ये क्रश लंबे समय तक रहा। पता नहीं अब शाहरुख मेरे सामने हों तो मेरी प्रतिक्रिया क्या होगी?

 

फिल्म ‘रेहाना मरियम नूर’ बांग्लादेश के हिसाब से एक बहुत ही साहसिक फिल्म है। इसे करने से पहले फिल्म के निर्देशक अब्दुल्ला मोहम्मद साद ने दुनिया भर की कोई सौ फिल्में मुझे देखने को दीं जो एक स्त्री को नायक बनाकर पेश करती हैं। इन फिल्मों को देखने के बाद ही मैं एक ऐसी फिल्म करने का साहस जुटा सकी जिसे करते समय खुद मेरा अपना अतीत बार बार मेरी आंखों के सामने कौंधता रहा।

 

 

मेरा मानना है कि कानून हो या संविधान उसे समय की जरूरत के हिसाब से आधुनिक होते रहना चाहिए। इस्लामिक कानून में महिला को किसी बच्चे का संरक्षक बनने लायक नहीं माना जाता है। हजार साल पहले ये बात ठीक भी रही होगी। लेकिन, अब ये मानना कि कोई स्त्री अपनी बड़ी हो रही बच्ची का ख्याल नहीं रख सकती या फिर अपना ही ख्याल नहीं रख सकती, गलत है। मुझे अपनी बच्ची का कानूनी अभिभावक बनने के लिए जो संघर्ष करना पड़ा, वह अपने आप में एक लंबी कहानी है। लेकिन, हां, एक कलाकार अपने जीवन में जिन जिन हालात और तकलीफों से से गुजरता है वह उसके अभिनय को प्रभावित तो करता ही है।

 

 

हां, प्रस्ताव तो पहले भी आते रहे हैं और अब फिल्म ‘खुफिया’ के बाद इनमें इजाफा ही हुआ है। मैं हर भाषा, हर प्रांत, हर देश की ऐसी फिल्में करना चाहती हूं जो रूटीन कहानियों पर न बनी हों और जिनमें एक अभिनेता के तौर पर योगदान देने के लिए मेरे पास भी कोई चुनौती हो। रही बात ढाका से अपना परिवार ले जाकर मुंबई में बसने की तो मैं बांग्लादेश की बेटी हूं। मुझे शोहरत और दौलत की चाहत से ज्यादा अपने देश से प्यार है। मैं अपने देश के लोगों के लिए भी बहुत कुछ करना चाहती हूं लेकिन बिना सियासी चेहरे या बिना किसी एनजीओ के सहारे के।

 

 

 

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