चिप बनाने में चीन के दबदबे को चुनौती देने से कितना दूर है भारत

20वीं सदी के प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर ने मानवता की प्रगति के लिए छोटी-छोटी चीज़ों के विकास पर बल दिया है जिसकी वकालत उन्होंने अपनी पुस्तक ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ में की है.

सेमी-कंडक्टर चिप के मामले में ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ पूरी तरह सटीक है. आईबीएम जैसी एक-दो टेक्नोलॉजी दिग्गजों ने एक नैनो चिप विकसित की है, जो इंसानी बाल से कई गुना पतली है. माइक्रोचिप्स रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले हर डिजिटल गैजेट या मशीन में लगती है. इनमें कंप्यूटर से लेकर स्मार्टफोन तक, हवाई जहाज से लेकर ड्रोन तक और चिकित्सा उपकरण से लेकर एआई उपकरण तक शामिल हैं. एक कार में तो औसतन 1500 चिप्स लगे होते हैं, जिस स्मार्टफोन का इस्तेमाल हम करते हैं वह कम-से-कम एक दर्जन चिप्स से संचालित होता है. विशेषज्ञ चिप की उपयोगिता की तुलना तेल से करते हैं और तेल की तरह ही सेमी-कंडक्टर उद्योग पर भी मुट्ठी भर देशों का दबदबा है. एक समय चिप बनाने का अविश्वसनीय रूप से जटिल और महंगा उद्योग कॉर्पोरेट दिग्गजों के बीच ज़बरदस्त कॉम्पीटीशन तक सीमित था. लेकिन अब यह कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच की दौड़ है. यह माना जा रहा है कि जो भी इस दौड़ में जीतता है वो दुनिया पर हर तरह से हावी होगा.

चिप रेस में कौन से देश आगे

अमेरिका और चीन के बीच राजनीतिक और व्यापारिक लड़ाई के बारे में हम सब जानते हैं, लेकिन अब ये दो विशाल अर्थव्यवस्थाएँ चिप उद्योग में बढ़त बनाने की होड़ में लगी हैं. चीन अभी अमेरिका से कुछ हद तक पीछे है, लेकिन उसकी दौड़ की रफ़्तार अमेरिका से कहीं तेज़ है.

लेखक क्रिस मिलर ने अपनी किताब ‘चिप वार’ में खुलासा किया है कि चीन हर साल चिप्स खरीदने पर अपना ख़र्च बढ़ा रहा है, इसी तरह चीन जितना पैसा तेल आयात करने में खर्च करता है उससे अधिक सेमीकंडक्टर चिप आयात करने पर लगाता है.

अगस्त के अंत में, जब चीनी स्मार्टफोन और टेलीकॉम दिग्गज ख्वावे ने अपना ताज़ा स्मार्टफोन मेट-60 प्रो लॉन्च किया तो राष्ट्रपति जो बाइडेन की सरकार ने भारी चिंता जताई.

चिंता इसलिए क्योंकि अमेरिकी प्रशासन इस बात पर हैरान था कि चीन इस फोन को पावर करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली 7 नैनो मीटर चिप का उत्पादन करने में कैसे कामयाब रहा.

अमेरिका सोच रहा था कि 7 नैनो मीटर वाली चिप में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों और प्रौद्योगिकी पर उसने चीन के ख़िलाफ़ पाबंदी लगा रखी है, इसलिए चीन में इसका प्रोडक्शन नामुमकिन है लेकिन चीन ने इन उपकरणों का इंतज़ाम किया और पेचीदा 7 नैनो मीटर चिप बनाने में कामयाब रहा.

इसके अतिरिक्त, 2019 में अमेरिकी सरकार ने ख्वावे को राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए अमेरिका से हाई-एंड चिप बनाने वाले टूल की बिक्री रोक दी थी, लेकिन चीन पर इसका कोई असर नहीं हुआ.

अमेरिकी प्रशासन भले ही हैरान हुआ हो, कनाडा में दुनिया के प्रमुख स्वतंत्र सेमी-कंडक्टर विशेषज्ञों में से एक डैन हचिसन ज़रा भी हैरान नहीं हुए.

न्यूज़ वाणी की टीम से उन्होंने बताया, “इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. ख्वावे ने उसी तकनीक और उपकरण का इस्तेमाल किया जिसका इस्तेमाल टीएसएमसी (ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी) और इंटेल ने किया है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. हम जानते थे कि उनके पास टूल सेट मौजूद है.”

चिप की दौड़ में शामिल हुआ भारत

भारत भी चिप बनाने की दौड़ में पूरी तैयारी के साथ कूद गया है. इसने देश में एंड-टू-एंड सेमी कंडक्टर इकोसिस्टम बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी मिशन शुरू किया है.

पहला अहम क़दम पिछले महीने गुजरात के साणंद में उठाया गया जब अमेरिकी कंपनी माइक्रॉन टेक्नोलॉजी ने एक अत्याधुनिक सेमीकंडक्टर असेंबली, पैकेजिंग और परीक्षण सुविधा का शिलान्यास किया.

यह फैक्ट्री पौने तीन अरब डॉलर की लागत से बनाई जा रही है. इसमें 82.5 करोड़ डॉलर का निवेश माइक्रॉन कर रहा है, बाकी निवेश भारत और गुजरात सरकार का है. इसके निर्माण का ठेका टाटा प्रोजेक्ट्स को दिया गया है. यह सुविधा अगले साल दिसंबर तक चालू होने की उम्मीद है.

सेमी-कंडक्टर माइक्रोचिप के क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने ग्राउंड ब्रेकिंग समारोह में उपस्थित लोगों से कहा, “मोदी जी ने आपके भविष्य की गारंटी दी है कि वह भारत को सेमीकंडक्टर का एक बड़ा केंद्र बनाएंगे.

भारत के सामने आ सकती अनेक चुनौतियाँ

सेमी-कंडक्टर इकोसिस्टम में डिजाइनिंग, उत्पादन, परीक्षण और पैकेजिंग शामिल हैं.

इसके अलावा, चिप्स बनाने के लिए आधुनकि उपकरणों, खनिजों और गैसों की ज़रूरत होती है.

चिप डिज़ाइनिंग का अनुभव भारत के पास है, जिसका काम मुख्य रूप से बेंगलुरु में होता है, लेकिन देश में उत्पादन, पैकेजिंग, उपकरण और कच्चे माल का अभाव है.

भारत के लिए क्या चुनौतियाँ?

  • भारी निवेश
  • बड़े ग्लोबल प्लेयर्स को लुभाना
  • रसायनों, गैसों और खनिजों की कमी
  • विशेषज्ञों को भारत लाना होगा
  • लंबे समय तक तेज़ गति से काम करना होगा

आईआईटी रोपड़ के निदेशक प्रोफेसर राजीव आहूजा का तर्क है कि 10-15 साल बाद निर्माण शुरू करने से पहले बहुत-सी दूसरी चीज़ों की जरूरत होती है. उनका कहना है कि यह कोई साधारण उद्योग नहीं है. वो कहते हैं, “इसके लिए बहुत अधिक काम की आवश्यकता होती है और उच्च स्तरीय उपकरण, सामग्री की ज़रूरत होती है. सामग्री का उत्पादन भी भारत में ही होना चाहिए.”

उद्योग के विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत इस समय सेमी-कंडक्टर चिप बनाने की दौड़ के शुरुआती चरण में है.

दौड़ की अंतिम रेखा तक पहुंचने में ताइवान और दक्षिण कोरिया को दशकों लग गए. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को ग्लोबल प्लेयर बनने में 10 से 20 साल भी लग सकते हैं.

कनाडा की टेकइनसाइट्स नाम की कंपनी के डैन हचिसन इस उद्योग के सबसे प्रसिद्ध विशेषज्ञों में से एक हैं. उन्होंने बीबीसी से कहा कि भारत को अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए धैर्यवान और दृढ़ रहने की ज़रूरत है.

उन्होंने कहा, “वास्तविक तौर पर इसमें 10 से 20 साल लगेंगे, अगर आपने परियोजनाओं को अच्छी तरह से लागू किया तब. आपको दौड़ने से पहले चलना सीखना होगा. यह सुनिश्चित करने के लिए अहम बात ये है कि माइक्रॉन परियोजना सफल हो.”

चिप निर्माण के लिए क्या चाहिए?

सेमी-कंडक्टर चिप निर्माण में अनिवार्य रूप से 150 से अधिक प्रकार के रसायनों और 30 से अधिक प्रकार की गैसों और खनिजों का इस्तेमाल होता है. फ़िलहाल ये सभी चीज़ें कुछ ही देशों में उपलब्ध हैं. भारत के लिए चुनौती इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के लिए एक और मुख्य चुनौती चिप उद्योग के लिए सहायक उद्योग तैयार करना है. चीन की राजधानी बीजिंग में चारहर इंस्टीट्यूट के डेविड चेन कहते हैं, “चीन के पास सेमी-कंडक्टर उद्योग को समर्थन देने के लिए एक बहुत मजबूत सहायक उद्योग है. इसमें कुछ कच्चे माल और खनिज हैं जो भारत के पास नहीं हैं. साथ ही, चीन इस उद्योग में अरबों डॉलर खर्च कर रहा है. मैंने कुछ दिनों पहले एक रिपोर्ट पढ़ी थी जिसमें कहा गया था कि ग्रामीण भारत में बड़ी संख्या में लोगों तक बिजली भी नहीं पहुंची है. अगर भारत सरकार अपने सभी संसाधन सेमी-कंडक्टर उद्योग में खर्च करती है, तो वह अपना लक्ष्य हासिल कर सकती है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि भारत सरकार एक ही उद्योग में अपनी सारी पूँजी लगा देगी.”

भारत की पिछली कुछ नाकामियाँ .

भारत में चिप बनाने वाली एकमात्र कंपनी ‘सेमीकंडक्टर लेबोरटरी’ (एससीएल) में 1984 में उत्पादन शुरू हुआ था. इसके तीन साल बाद ताइवान सेमी-कंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी’ (टीएसएमसी) की स्थापना हुई थी.

आज टीएसएमसी दुनिया की नंबर वन लॉजिक चिप बनाने वाली कंपनी है, जिसका सालाना कारोबार 70 अरब डॉलर से अधिक है, जबकि एससीएल का केवल 50 लाख डॉलर का.

एससीएल 100 नैनोमीटर से अधिक बड़े चिप का उत्पादन करता है, जो कई जनरेशन पुरानी हैं और सरकारी स्वामित्व वाली फैक्ट्री को आधुनिकीकरण की सख्त जरूरत है. चिप्स का इस्तेमाल ‘इसरो’ के अंतरिक्ष अभियानों में किया जाता है.

भारत में चिप निर्माण

भारत एक अग्रणी चिप निर्माता हो सकता था, लेकिन 1989 में एक बड़ी घटना ने देश को सेमी-कंडक्टर के मामले में बहुत पीछे धकेल दिया. साल 1989 में मोहाली की एससीएल फैक्ट्री एक रहस्यमयी आग में नष्ट हो गई थी. कोई नहीं जानता कि यह एक दुर्घटना थी या कोई साज़िश. बाद में फैक्ट्री दोबारा शुरू की गई लेकिन दौड़ में बहुत पीछे रह गई. डैन हचिसन 1970 के दशक से भारतीय चिप उद्योग पर नज़र रखे हुए हैं. वह कहते हैं, ”मैंने अपने पूरे करियर में भारत को इस उद्योग के लिए प्रयास करते देखा है. इसे केवल नाकामियाँ ही मिली हैं. अब भारत का सफल होना जरूरी है. मुद्दा कुछ बुनियादी चीज़ों के बारे में है, जैसे एक स्थिर पावर ग्रिड, लगातार पानी की उपलब्धता, जो इस उद्योग को बनाना संभव बनाती हैं.”

चुनौतियों से कैसे निपट सकता है भारत ?

ताइवान की सफलता की कहानी का श्रेय ताइवानी मूल के लोगों को जाता है जिन्होंने अमेरिका में सेमी-कंडक्टर बनाने का अनुभव हासिल किया और बड़े पदों पर काम किया. विशेषज्ञों का कहना है कि बड़ी कंपनियों के बड़े पदों पर भारतीयों की कोई कमी नहीं है जो अमेरिका और अन्य जगहों पर सेमी-कंडक्टर कारोबार में अच्छा काम कर रहे हैं.

हचिसन कहते हैं कि अगर भारत उन्हें वापस लुभा सकता है तो इससे उद्योग को बड़ा प्रोत्साहन मिलेगा.

बीजिंग के चारहर इंस्टीट्यूट के डेविड चेन कहते हैं कि भारत के लिए आशा की किरण है, “भारत को उत्पादन के बारे में बहुत अधिक चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि भारत के पास बहुत उन्नत इंजीनियर हैं जो डिज़ाइन कर सकते हैं. अगर आप अमेरिका को देखें, तो बहुत सारे सीईओ भारतीय हैं, जो भारत से आए हैं, इसलिए डिज़ाइन के मोर्चे पर उनका दबदबा है. यह भारत के लिए बहुत बड़ा एडवांटेज है. अगर भारत अपने पत्ते सही से खेलता है, तो भारत अब भी इस उद्योग में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है.”

आईआईटी रोपड़ के निदेशक प्रोफेसर राजीव आहूजा का मानना है कि भारतीय आईआईटी को ऐसे पाठ्यक्रम शुरू करने की जरूरत है जो सेमी-कंडक्टर उद्योग में मदद करें.

वे कहते हैं, “हमने आईआईटी में बीटेक कार्यक्रम शुरू किए हैं. इंजीनियरिंग फिजिक्स क्या है? वह सेमीकंडक्टर फिजिक्स है इसलिए सेमी-कंडक्टर का कुशल विकास पहले से ही हो रहा है. भारत में मैनपावर की कोई कमी नहीं है, कुशल मैनपावर की कमी है, जिसे प्रशिक्षण और उचित पाठ्यक्रमों द्वारा दूर किया जा सकता है.”

भारत नई परियोजनाएं शुरू करने के लिए कई अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ समझौते पर सहमति बनाने के कगार पर है. पीएम मोदी व्यक्तिगत रूप से इन परियोजनाओं में लगे हुए हैं.

उन्होंने इस तथ्य को पहचाना है कि अगर भारत को एक अग्रणी देश बनना है तो उसे सेमी-कंडक्टर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभानी होगी. विशेषज्ञ कहते हैं कि गुजरात में माइक्रॉन पैकेजिंग फैक्ट्री स्थापित करना सही दिशा में एक कदम है, जैसा कि डैन हचिसन कहते हैं, “यह एक महान प्रारंभिक कदम है. दक्षिण कोरिया, ताइवान और चीन सभी की शुरुआत पैकेजिंग इकाइयों से हुई है.”

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