मणिपुर हिंसा’ बन सकता चुनावी मुद्दा?

मिज़ोरम की राजधानी आइज़ोल में अधिकतर लोगों के दिन की शुरुआत सुबह 5 बजे हो जाती है.

एक ऐसी ही सुबह मैं वहां पहुंचा तो कुछ लोग सैर करने निकले हुए थे. सड़क किनारे चाय और खाने-पीने की दुकानें भी खुल चुकी थीं. दो पहिया टैक्सी स्टैंड पर वाहनों की कतार लगाए कुछ युवा खड़े थे. वही दोपहिया टैक्सी जिस पर इसी हफ़्ते कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सवारी की थी.

पर इस नज़ारे को देख कर यह आभास नहीं होता कि महज़ दो हफ़्ते बाद ही यहां 7 नवंबर को विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने हैं.

पूरे शहर में न तो किसी पार्टी का कोई बड़ा पोस्टर दिखता है और न ही झंडे लगे है. यहां ‘डोर टू डोर’ चुनाव प्रचार करने पर भी मनाही है. हालांकि शहर में मौजूद पार्टी कार्यालयों में कुछ बैनर और झंडे ज़रूर टंगे हैं.

क़रीब 13 लाख 80 हज़ार की आबादी वाले इस छोटे से पहाड़ी राज्य में भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य सेवाएं, अवैध घुसपैठ जैसे कई राजनीतिक मुद्दे हैं.

हिंसा’ बनेगा चुनावी मुद्दा?

मिज़ोरम विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर जे. डौंगल के अनुसार यहां इस बार का चुनाव कई स्थानीय मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा.

उनके अनुसार यहां मुक़ाबला एमएनएफ़ और जेडपीएम के बीच है लेकिन म्यांमार और मणिपुर से यहां शरण लेने आए लोगों का मसला भी एक मुद्दा है.

प्रोफ़ेसर डौंगल कहते हैं, “मणिपुर हिंसा के ख़िलाफ़ आइजोल की सड़कों पर जब लोगों ने विरोध रैली निकाली थी उसमें यहां का प्रत्येक व्यक्ति शामिल हुआ था. मुख्यमंत्री जोरामथांगा भी लोगों के साथ रैली में थे. लिहाजा एमएनएफ़ इस मुद्दे को सबसे ज़्यादा अहमियत दे रही है. एमएनएफ़ के कामकाज में कई कमियां हो सकती हैं लेकिन वो इन लोगों के साथ शुरू से खड़ी है.”

चिन, कुकी-ज़ोमी शरणार्थी का मुद्दा ‘मिज़ो राष्ट्रवाद’

म्यांमार में 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद से शरणार्थी मिज़ोरम में प्रवेश करते रहे हैं. इस साल अप्रैल में गृह मंत्रालय ने मिज़ोरम और मणिपुर सरकारों को अपने राज्यों में “अवैध अप्रवासियों” का बायोमेट्रिक और जीवनी विवरण एकत्र करने का निर्देश दिया था. लेकिन एनडीए के सहयोगी होते हुए भी मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने बायोमेट्रिक और उन लोगों से जुड़े अन्य डेटा संग्रह करने से इनकार कर दिया.

मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा के नेतृत्व वाली मिजो नेशनल फ़्रंट (एमएनएफ़) म्यांमार के चिन और मणिपुर के कुकी-ज़ोमी शरणार्थियों के मुद्दे को ‘मिज़ो राष्ट्रवाद’ बताती है. यही एक मुद्दा है जिसके सहारे क्षेत्रीय पार्टी फिर से सत्ता में आना चाहती है. एमएनएफ़ ने अपने एजेंडे में इसे सबसे ऊपर रखा है.

दरअसल एमएनएफ़ का इतिहास ‘मिज़ो राष्ट्रवाद’ से जुड़ा हुआ है. इसलिए पार्टी को लगता है कि उनकी सरकार ने जिस कदर चिन, कुकी-ज़ोमी शरणार्थियों और उनके बच्चों की मदद की है उसके बदले उन्हें यहां के मतदाताओं का समर्थन मिलेगा.

एमएनएफ़ के उपाध्यक्ष और पूर्व लोकसभा सांसद वनलालज़ावमा कहते हैं, “हमारे लिए चिन, कुकी-ज़ोमी शरणार्थियों का यह मसला एक बड़ा मुद्दा है. एमएनएफ का जन्म 1961 में मिज़ो राष्ट्रवाद से हुआ था और यही इसकी नींव है. हमारी नीति उन सभी इलाकों को एक प्रशासन के तहत लाने की रही है जहां मिज़ो आबादी बसी है.”

वे कहते है, “मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने केंद्र सरकार के उस निर्देश को मानने से इनकार कर दिया था जिसमें म्यांमार से आए लोगों को वापस भेजने की बात कही गई थी. म्यांमार के चिन, कुकी-ज़ोमि और मिज़ो हम सभी एक ही ज़ो जातीय समूह से है. एक वंश से होने के कारण उनकी कोई भी तकलीफ़ हमारी भावना से जुड़ी हुई है. हमने म्यांमार और मणिपुर से आए 50 हज़ार से अधिक लोगों के लिए रहने और खाने-पीने की व्यवस्था की है. चार हज़ार से अधिक बच्चों का स्कूलों में निशुल्क दाखिला करवाया है.”

हालांकि मिज़ोरम में तेज़ी से उभर रही क्षेत्रीय पार्टी जेडपीएम, कांग्रेस, बीजेपी और नागरिक संगठन शरणार्थियों के मसले को चुनावी मुद्दा नहीं मानते.

वे आरोप लगाते है कि एमएनएफ़ सरकार ने जो वादे किए थे उनको पूरा नहीं किया. इसलिए अब चुनाव में वो लोगों की भावनाओं का फ़ायदा उठाना चाहती है.

2018 के चुनाव में आठ सीट जीतकर प्रमुख विपक्ष की भूमिका निभाने वाले जेडपीएम के वरिष्ठ नेता तथा आइजोल वेस्ट से चुनाव लड़ रहे टीबीसी लालवेनचुंगा कहते हैं, “चिन,कुकी-ज़ोमी शरणार्थी के मसले को एमएनएफ एक मुद्दा बनाकर लोगों के सामने ले जा रही है. असल में एमएनएफ ने अपने पिछले घोषणापत्र में फ़्लाइओवर बनाने से लेकर जरूरतमंद परिवार को तीन लाख रुपये देने जैसे कई बड़े वादे किए थे. वो इन वादों को पूरा करने में विफल रहें. मणिपुर और म्यांमार में सताए गए चिन, कुकी-ज़ोमी लोगों से हमारा ख़ून का रिश्ता है. लिहाजा सारे मिजो लोग उनकी मदद कर रहे हैं.”

कांग्रेस का भी यही कहना कि इस चुनाव में चिन, कुकी-ज़ोमी शरणार्थियों की मदद करने के नाम पर वोट नहीं मिलेंगे.

मिज़ोरम प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष वनलालावम्पुई चौंगथु कहती हैं, “मुश्किल समय में अपने लोगों की मदद करना सत्ताधारी सरकार का कर्तव्य होता है. मणिपुर में हिंसा के कारण यहां शरण लेने आए लोगों की यहां के हर एक नागरिक ने मदद की है. मिज़ोरम के लोग केवल इस बात के लिए किसी भी पार्टी को वोट नहीं करेंगे.”

बीजेपी अपने सहयोगी सत्ताधारी दल एमएनएफ पर केंद्र से भेजे गए पैसों को लेकर भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाती है. इस बार के चुनावी मुद्दों और अपनी रणनीति पर बात करते हुए मिज़ोरम प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष वनलालहमुअका कहते हैं, “हमारे लिए यहां आए शरणार्थी भाई-बहनों का मसला मुद्दा नहीं है. हमारे लिए मिज़ोरम का विकास पहली प्राथमिकता है. एमएनएफ़ शरणार्थियों के नाम पर एक राजनीतिक ड्रामा कर रही है.”

मिज़ोरम के सबसे प्रभावी ईसाई संगठन यंग मिज़ो एसोसिएशन में चार लाख से अधिक कार्यकर्ता है जिन्होंने म्यांमार और मणिपुर हिंसा की पीड़ितों की सबसे ज़्यादा मदद की है.

यंग मिज़ो एसोसिएशन के एक सीनियर लीडर ने नाम प्रकाशित नहीं करने की शर्त पर कहा, “मिज़ोरम के लोगों के लिए यहां शरण लेने आए लोगों का मसला एक चुनावी मुद्दा नहीं हो सकता. इस चुनाव में लोग मौजूदा सरकार में हुए भ्रष्टाचार पर बात कर रहे हैं. स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी पर बात कर रहे हैं. मिज़ोरम की क़रीब 14 लाख आबादी के लिए राज्य में केवल एक मेडिकल कॉलेज है. ऐसे एक उपेक्षित राज्य में शरणार्थियों के नाम पर कोई कैसे मुद्दा बना सकता है.”

मिज़ोरम विधानसभा की कुल 40 सीटों के लिए 7 नवंबर को मतदान होने हैं. विधानसभा क्षेत्रों में घूमने और लोगों से बात करने पर लग रहा है कि इस बार का चुनावी मुक़ाबला दो प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां एमएनएफ़ और ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) के बीच होता दिख रहा है.

20 फ़रवरी 1987 में मिज़ोरम को एक पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद से कांग्रेस ने यहां क़रीब 22 साल शासन किया. लेकिन इस बार के चुनाव में कांग्रेस कई चुनौतियों का सामना करती दिख रही है.

बीजेपी के लिए मणिपुर हिंसा के बाद पूर्वोत्तर के किसी राज्य में यह पहला चुनाव है. भगवा पार्टी ने ईसाई बहुल इस राज्य में पिछली बार के चुनाव में एक सीट हासिल कर अपना खाता खोला था. लेकिन हिंदुत्व वाली राजनीति के सामने यहां के मतदाता ज़्यादा सहज नहीं दिखते.

आइज़ोल शहर की एक होटल में काम करने वाले 24 साल के संगसंगा ने पिछली बार एमएनएफ़ को अपना वोट दिया था.

वे कहते हैं, “इस बार मैंने तय नहीं किया है कि किसको वोट करूंगा. लेकिन यह बता सकता हूं कि वो क्षेत्रीय पार्टी ही होगी. बीजेपी के बारे में नहीं सोचा है.”

विधानसभा भवन के पास स्टेशनरी की दुकान चलाने वाली 49 साल की छाना भी कुछ ऐसा ही सोच रही हैं.

चुनावी मुद्दों के बारे में पूछने पर वह कहती हैं, “मिज़ोरम के लोग मुद्दों से ज़्यादा उम्मीदवार को देखकर वोट डालते है. कांग्रेस ने लंबे समय तक राज किया है. अब क्षेत्रीय पार्टियां ही उम्मीद है. हम महिलाओं के कई मुद्दे है, उस पर बात नहीं हो रही है. इसलिए मतदान को लेकर किसी तरह का उत्साह नहीं है.”

साल 2018 के चुनाव में मिजो नेशनल फ़्रंट (एमएनएफ़) ने 37.8 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 40 सीटों में से 26 सीटें हासिल की थी. जेडपीएम को 8 सीटें तथा कांग्रेस को पांच और भाजपा ने एक सीट जीती थी.

क्या कहते म्यांमार-मणिपुर से आए शरणार्थी?

इस समय मिज़ोरम में म्यांमार से भागकर आए क़रीब 40 हज़ार लोग अपने परिवार के साथ राज्य के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हैं. जबकि मणिपुर हिंसा के कारण आए 12 हज़ार से अधिक कुकी-ज़ोमी लोगों ने मिजोरम में शरण ले रखी है.

म्यांमार के एक सीमावर्ती प्रांत से अपनी जान बचाकर पत्नी और तीन बच्चों के साथ तीन साल पहले मिजोरम में शरण लेने आए ज़ोआ (बदला हुआ नाम) मानते हैं कि मिजो लोगों के साथ वंशावली का रिश्ता होने के कारण यह चुनावी मुद्दा भावनात्मक है.

वे कहते है, “हम यहां अपने बच्चों के साथ सुरक्षित हैं. मिज़ोरम के लोग हमें शरणार्थी की तरह नहीं बल्कि भाई-बहन जैसा प्यार दे रहे हैं. राज्य सरकार और वाइएमए जैसे यहां के कई नागरिक संगठनों ने हमारी बहुत मदद की है. हम यहां केवल शरणार्थी है. लिहाजा मिज़ोरम के लोग यह तय करेंगे कि अगली सरकार किस पार्टी की बनेगी.”

आइज़ोल के फाल्कन इलाके में स्थित रे कॉम्प्लेक्स में मणिपुर से भागकर आए कुकी-ज़ोमी जनजाति के 62 परिवार क़रीब पांच महीने से अपने बच्चों और बुजुर्गों के साथ रह रहे हैं. मणिपुर के चंदेल ज़िले के सुगनु ज़ोवेंग गांव के रहने वाले जॉन थांग वांग लियान मिज़ोरम चुनाव पर कहते हैं, “मिज़ोरम में चुनावी मुद्दा क्या है, इस पर हमें बोलने का कोई अधिकार नहीं है. मिजो और हमारी जनजाति के बीच ख़ून का रिश्ता है. मणिपुर सरकार ने हमें सुरक्षा नहीं दी. इसलिए हमें वहां से भागना पड़ा. हमारे पास अब अंतिम विकल्प मिज़ोरम सरकार ही है जो हमारी समस्या को लेकर केंद्र सरकार से बात करेगी.”

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