इजराइल-फिलिस्तीन लड़ाई पर भारत की पड़ी छाप: भारतीय सैनिकों ने 105 साल पहले जीता था अल-अक्सा यरुशलम

 

भारत से 40 हजार किलोमीटर दूर भूमध्य सागर के पार रेगिस्तानी इलाके में चोटी पर एक शहर बसा है। इसका नाम ‘यरुशलम’ है। इजराइल और हमास के बीच चल रही जंग की अहम वजह ये शहर ही है। दरअसल, हमास ने इजराइल पर हमले का नाम ‘अल-अक्सा’ फ्लड रखा है। अल-अक्सा यरुशलम की वो मस्जिद है, जिसमें 2021 में इजराइली पुलिस घुस गई थी।

हमास ने इजराइल पर 7 अक्टूबर के हमले को उसी का बदला बताया है। 105 साल पहले इसी यरुशलम शहर को भारतीय सैनिकों ने ही ऑटोमन सम्राज्य को हराकर अंग्रेजों के लिए जीता था। अंग्रेजों ने 1917 में यहूदियों से ये वादा किया कि यरुशलम अब उनका होगा।

 

 

 

1918 तक यरुशलम शहर पर तुर्की के ऑटोमन सम्राज्य का कब्जा था। इस्लाम धर्म में मक्का, मदीना के बाद यरुशलम तीसरा सबसे पवित्र शहर है। इन तीनों शहरों पर शासन होने की वजह से ऑटोमन सम्राज्य को मुस्लिमों के खलीफा का दर्जा मिला था। दुनियाभर के मुस्लिम इस खलीफा की इज्जत करते थे।

फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान ऑटोमन सम्राज्य जर्मनी के साथ मिलकर ब्रिटेन और दूसरे पश्चिमी देशों के खिलाफ जंग लड़ रहा था। जंग के शुरुआती दौर में तुर्कों ने इराक और यूरोप में अंग्रेजों को बुरी तरह हराया था। खलीफा पर हुए इस हमले की वजह से दुनियाभर के मुस्लिम अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। हालांकि, अंग्रेजी सेना में शामिल मुस्लिम सिपाहियों पर इसका ज्यादा असर नहीं हुआ।

 

 

 

जनवरी 1917 में ब्रिटेन ने गाजा और फिलिस्तीन पर मिस्र की तरफ से हमला किया तो उनकी सेना में काफी संख्या में भारतीय भी शामिल थे। करीब 6 महीने की लड़ाई के बाद आखिर में जर्मनी और ऑटोमन सम्राज्य को हार का सामना करना पड़ा। अब अगली बारी हाइफा और यरुशलम की थी।

अंग्रेजों के लिए ये दोनों जगह जीतना बहुत जरूरी था, क्योंकि जंग लड़ रही उनकी सेना के लिए समंदर से होकर सामान जाता था। पहाड़ और ऊंचाई पर होने की वजह से ब्रिटिश सेना के लिए इन दोनों जगहों पर कब्जा करना मुश्किल था। ऐसे समय में ब्रिटिश सेना की भारतीय रेजीमेंट ने दोनों शहरों को जीतने का फैसला किया।

 

 

 

17 नवंबर 1918 को घुड़सवार भारतीय सैनिकों ने भाले और तलवार के साथ यरुशलम शहर पर हमला बोल दिया। भारतीय रेजीमेंट में शामिल मुस्लिम सिपाहियों को यहां की संस्कृति और रहन-सहन के बारे में अच्छे से पता था। ऐसे में उनके लिए यहां जंग लड़ना बेहद आसान था।

भारतीय सैनिकों के आगे जल्द ही जर्मन और ऑटोमन सेनाओं पस्त हो गईं और यरुशलम छोड़कर भागने के लिए मजबूर हो गईं। 9 दिसंबर को दुश्मन सैनिकों के जंग के मैदान से भागने के बाद भारतीय रेजीमेंट ने पूरे शहर में मार्च कर कब्जा कर लिया।

 

 

 

अब यरुशलम और इसके आसपास के इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। अरब के कई देशों से अच्छे संबंध होने और यरुशलम में मुस्लिमों की आबादी ज्यादा होने की वजह से अंग्रेज उनकी धार्मिक भावना को आहत नहीं करना चाहते थे।

इसी वजह से अंग्रेजों ने भारतीय रेजीमेंट के मुस्लिम सैनिकों को अल-अक्सा समेत वहां की सभी मस्जिदों की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी। वहीं यरुशलम शहर के चौक-चौराहे और गलियों में हिंदू और सिख सैनिकों की तैनाती की गई।

यरुशलम पर कब्जे से पहले ही 23 सितंबर को 44 भारतीय सैनिकों के मारे जाने के बाद भारतीय कैवलरी रेजिमेंट ने हाइफा शहर पर कब्जा कर लिया था। इस तरह भारतीय सैनिकों की बहादुरी की वजह से ही अंग्रेज यरूशलम और हाइफा जैसे दो महत्वपूर्ण शहरों को जीत पाए थे।

 

 

 

1350 जर्मन सैनिकों को बंदी बनाया था

इस जंग में भारतीय ब्रिगेड ने 1350 जर्मन सैनिकों को बंदी बनाया था। 17 गन, 11 मशीन गन जब्त कीं।

इस जंग में 44 भारतीय सैनिक शहीद हुए, जिनकी यहां समाधियां बनी हुई हैं। इस लड़ाई में भारतीय सैनिकों के 63 घोड़े मारे गए और 80 जख्मी हुए थे।

पहले वर्ल्ड वॉर के दौरान पूरे फिलिस्तीन में करीब 900 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे।

हाइफा की जंग ने ब्रिटिश फौज की जीत और इसके 30 साल बाद इजरायल के बनने का रास्ता खोल दिया।

 

 

 

मेजर दलपति सिंह बने- हीरो ऑफ हाइफा

इस जंग में बहादुरी के लिए कैप्टन अमन सिंह बहादुर और दफादार जोर सिंह को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट (IOM) दिया गया।

कैप्टन अनूप सिंह और 2nd लेफ्टिनेंट सगत सिंह को मिलिट्री क्रॉस (MC) से नवाजा गया।

हाइफा को आजाद कराने में मेजर दलपत सिंह की जांबाजी के लिए उन्हें इतिहास में ‘हीरो ऑफ हाइफा’ के नाम से जाना जाता है। उन्हें भी मिलिट्री क्रॉस से नवाजा गया था।

 

 

 

1936 की बात है जब फिलिस्तीन में रहने वाले अरब मुस्लिमों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। इसे अंग्रेजों ने बड़ी क्रूरता से दबाया। 2 हजार फिलिस्तीनियों के घर तबाह कर दिए, 9 हजार लोगों को पकड़ कर यातना शिविरों में डाल दिया। अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुआ विद्रोह 1939 तक चला।

विद्रोह कुचले जाना पर न सिर्फ अरब, बल्कि दुनिया भर के मुस्लिमों ने भी कड़ा विरोध जताया। असर भारत तक हुआ था जहां मुस्लिम लीग ने इसकी आलोचना करते हुए काफी प्रस्ताव पारित किए। लीग ने अंग्रेजी हुकूमत की उस पॉलिसी का भी बहिष्कार किया जिसका मकसद फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए इजराइल देश की स्थापना करना था।

 

 

 

 

भारत में मुस्लिम आबादी काफी थी। अंग्रेज इस मुद्दे पर मुस्लिमों का रवैया नर्म करना चाहते थे। नतीजा ये रहा कि इस मुद्दे पर 1939 में हुई फिलिस्तीनी राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस के लिए ब्रितानी हुकूमत ने भारत के आगा खां को न्यौता भेज दिया। इससे भारत में खुद को मुस्लिमों के प्रवक्ता मानने वाले जिन्ना नाराज हो गए। उन्होंने कॉन्फ्रेंस में अपने लिए भी सीट की मांग कर दी। उन्होंने यह भी कहा कि इस मीटिंग में यरुशलम के मुफ्ती को भी बुलाया जाए। जब उनकी मांग स्वीकार नहीं हुई तो जिन्ना ने एक डेलिगेशन लंदन भेजा।

इसका मकसद राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने वाले अरब डेलिगेशन को सुझाव देना था। लंदन में जिन्ना का प्रतिनिधित्व करने वालों ने ब्रिटेन की संसद को एक पत्र लिखा। इसमें 1918 की वो जंग याद दिलाई, जिसमें भारत के सैनिकों ने अंग्रेजों के लिए फिलिस्तीन को जीता था। लेटर में लिखा गया था कि ऐसा करने वाले एक तिहाई सैनिक मुस्लिम थे, जो फिर से जर्मनी से लड़ने में उनकी मदद कर सकते हैं।

 

 

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