भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य बिल को अब मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा. उनके दस्तखत के बाद ये तीनों बिल कानून बन जाएंगे.
कई विशेषज्ञों ने इन कानूनों की जरूरत पर सवाल उठाए हैं, क्योंकि ये काफी हद तक पिछले कानूनों की नकल करते हैं.
कई लोगों ने लोकतंत्र पर इनके प्रभाव को लेकर भी सवाल उठाए हैं, क्योंकि हाल ही में संसद की सुरक्षा के उल्लंघन पर गृह मंत्री अमित शाह से बयान मांगने पर विपक्ष के 146 सांसदों को निलंबित कर दिया गया था.
आइए जानते हैं इन बिलों के मुख्य मुद्दों के बारे में, जिन्हें आपको जानना जरूरी है.
का क्या कहना है सरकार का ?
संसद में अमित शाह का भाषण अगस्त में उनके पिछले भाषण के समान था, जब उन्होंने ये बिल पेश किए थे. उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि यह औपनिवेशिक अतीत से एक विराम था, क्योंकि वर्तमान में उपयोग किए जा रहे कानून ब्रिटिश काल में बनाए गए थे.
उन्होंने कहा, ”यहां पहले दंड देने की सेंट्रलाइज सोच वाले कानून थे और अब विक्टिम सेंट्रिक जस्टिस का उद्भव होने जा रहा है.”
उन्होंने लोकसभा में कहा, ”ये ब्रिटिश राज और ब्रिटिश काल के गुलामी के सारे चिह्न समाप्त करके संपूर्ण भारतीय कानून बनने जा रहा है.”
इसके बाद शाह ने कोड में किए गए बदलावों की सूची पेश की. अब महिलाओं, बच्चों और मानव शरीर के खिलाफ अपराधों को ऊपर कर दिया गया है. उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने सरकार के खिलाफ अपराधों पर अधिक जोर दिया. लेकिन अब वे भारतीय नागरिकों के खिलाफ अपराधों को पहले प्राथमिकता दे रहे हैं.
उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों, मॉब लिंचिंग, भारत की संप्रभुता को खतरा पैदा करने वाले अपराधों को कानूनों में शामिल करने और बलात्कार जैसे कई अपराधों में सजा में बढ़ोतरी पर भी बात की. उन्होंने जांच और अदालती सुनवाई की प्रक्रिया में तकनीकी बदलाव पर ध्यान देने और किसी मामले का फैसला कितनी तेजी से किया जाना है, इसके लिए तय की गईं समय-सीमाओं पर प्रकाश डाला.
अमित शाह ने कहा, ” ‘तारीख पे तारीख’ युग का अंत सुनिश्चित होगा.”
बिलों से क्या बदलेगा?
संवैधानिक कानून के जानकार प्रोफेसर तरुणाभ खेतान की तुलना के मुताबिक नए कानूनों में 80 फीसदी से अधिक प्रावधान समान हैं. इसके बाद भी कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं.
- भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को एक नए अपराध की कैटेगिरी में डाला गया है. जबकि तकनीकी रूप से राजद्रोह को आईपीसी से हटा दिया गया है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी रोक लगा दी थी, यह नया प्रावधान जोड़ा गया है. इसमें किस तरह की सजा दी जा सकती है, इसकी विस्तृत परिभाषा दी गई है.
- आतंकवादी कृत्य, जो पहले गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम जैसे विशेष कानूनों का हिस्सा थे, इसे अब भारतीय न्याय संहिता में शामिल किया गया है.
- इसी तरह, पॉकेटमारी जैसे छोटे संगठित अपराधों समेत संगठित अपराध से निपटने के लिए प्रावधान पेश किए गए हैं. पहले इस तरह के संगठित अपराधों से निपटने के लिए राज्यों के अपने कानून थे.
- मॉब लिंचिंग, यानी जब पांच या अधिक लोगों का एक समूह मिलकर जाति या समुदाय आदि के आधार पर हत्या करता है, तो समूह के प्रत्येक सदस्य को आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी.
- शादी का झूठा वादा करके सेक्स को विशेष रूप से अपराध के रूप में पेश किया गया है.
- व्यभिचार और धारा 377, जिसका इस्तेमाल समलैंगिक यौन संबंधों पर मुकदमा चलाने के लिए किया जाता था, इसे अब हटा दिया गया है.
- पहले केवल 15 दिन की पुलिस रिमांड दी जा सकती थी. लेकिन अब अपराध की गंभीरता को देखते हुए इसे 60 या 90 दिन तक दिया जा सकता है.
- छोटे अपराधों के लिए सजा का एक नया रूप सामुदायिक सेवा को शामिल किया गया है. सामुदायिक सेवा को समाज के लिए लाभकारी बताया गया है.
- जांच-पड़ताल में अब फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाने को अनिवार्य बनाया गया है.
- सूचना प्रौद्योगिकी का अधिक उपयोग, जैसे खोज और बरामदगी की रिकॉर्डिंग, सभी पूछताछ और सुनवाई ऑनलाइन मॉड में करना.
- एफआईआर, जांच और सुनवाई के लिए अनिवार्य समय-सीमा तय की गई है. उदाहरण के लिए, अब सुनवाई के 45 दिनों के भीतर फैसला देना होगा, शिकायत के 3 दिन के भीतर एफआईआर दर्ज करनी होगी.
- अब सिर्फ मौत की सजा पाए दोषी ही दया याचिका दाखिल कर सकते हैं. पहले गैर सरकारी संगठन या नागरिक समाज समूह भी दोषियों की ओर से दया याचिका दायर कर देते थे.
आम लोगों के लिए इन बदलावों का मतलब क्या होगा?
तमाम कानून विशेषज्ञ इस बात की चिंता जता रहे हैं कि ये बिल पुलिस को जवाबदेह न ठहराते हुए उन्हें और अधिक शक्ति देंगे.
कानूनी शिक्षाविद और विशेषज्ञ जी मोहन गोपाल ने लिखा, “यह विधेयक सभी स्तरों- केंद्र, राज्य और स्थानीय पर राजनीतिक नेतृत्व को राजनीतिक लाभ के लिए आपराधिक न्याय प्रणाली का दुरुपयोग करने का अधिक अवसर देने के लिए पुलिस और आपराधिक न्याय प्रणाली को हथियार बनाते हैं.” उनका मानना है कि यह एक गिरफ्तार व्यक्ति के बायोमेट्रिक्स एकत्र करना अनिवार्य करके एक निगरानी करने वाला राज्य भी बनाता है.
विशेषज्ञ इस बात के लिए भी आशंकित हैं कि क्या समय सीमा निर्धारित करने से मदद मिलेगी.
उदाहरण के लिए, अनूप सुरेंद्रनाथ अपने सहयोगियों के साथ प्रोजेक्ट 39-ए चलाते हैं. यह मृत्युदंड के दोषियों का प्रतिनिधित्व करता है. उन्होंने लिखा है कि त्वरित न्याय के लिए, न्यायिक रिक्तियों और न्यायिक बोझ को कम करना होगा. यहां तक कि फॉरेंसिक के उपयोग के लिए भी बुनियादी ढांचे और कर्मियों के प्रशिक्षण में निवेश की जरूरत होगी.
इसके साथ ही कुछ बदलावों का स्वागत भी किया गया है, जैसे तलाशी और जब्ती की ऑडियो-विज़ुअल रिकॉर्डिंग. हालाँकि, यह कितना प्रभावी होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इसे कैसे लागू किया जाता है.
‘प्रोजेक्ट 39-ए’ का मानना है कि यह कानून ‘व्यापक अतिअपराधीकरण और व्यापक पुलिस शक्तियों द्वारा राज्य के नियंत्रण को अनुचित रूप से विस्तारित करता है’. इस संबंध में सबसे बड़ा परिवर्तन पुलिस हिरासत का विस्तार और भारत की संप्रभुता को खतरे में डालने पर नए अपराधों की शुरुआत है.
उन्होंने लिखा, “ये विधेयक, औपनिवेशिक काल के आपराधिक कानून को ख़त्म करने से काफी दूर है और औपनिवेशिक तर्क को उलझाते हैं- जहां आपराधिक कानून में राज्य का सर्वोपरि हित लोगों को यथासंभव अधिकतम सीमा तक नियंत्रित करना है.”
‘इंडिया टुडे’ से बातचीत में वरिष्ठ वकील और कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने भी कहा कि यह कानून ‘लव जिहाद’ को दंडित करेगा. चूंकि, धोखे से सेक्स करने पर नया प्रावधान है, इसलिए उनका मानना था कि इसका इस्तेमाल लोगों को निशाना बनाने के लिए किया जाएगा.
वर्तमान में, सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़े कुछ नेता आरोप लगाते रहे हैं कि कई मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं से शादी केवल उनका धर्म बदलने के लिए करते हैं.
विधेयकों पर संसद में बहस क्यों?
यह हमारी न्याय प्रणाली में किए गए सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक है. यह देश में संपूर्ण आपराधिक कानून संहिता को उलट देगा. विधेयक पारित होने के दौरान करीब 150 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया था. यह किसी एक सत्र के दौरान सबसे अधिक निलंबन है. दोनों सदनों में इन तीनों बिलों के पास होने से पहले कुल 5 घंटे की चर्चा हुई.
केवल ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन और शिरोमणि अकाली दल के सांसदों ने ही इन बिलों का विरोध किया. अभिषेक मनु सिंघवी के मुताबिक, उन्हें कांग्रेस की ओर से बहस की शुरुआत करनी थी, लेकिन उन्हें संसद से ही निलंबित कर दिया गया.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर के मुताबिक इन कानूनों पर अधिक बहस की जरूरत है, क्योंकि ये भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं. कई सांसदों ने बताया कि सरकार ने पुलिस की जवाबदेही पर सुधार लाने का अवसर खो दिया, जैसा कि भारत के कानून आयोग की कई रिपोर्टों में कहा गया है.
कई सांसदों ने इस घटना को ‘लोकतंत्र की मौत’ बताया है.
प्रताप भानु मेहता ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा, ” विपक्ष के बिना संसद केवल कार्यपालिका की बेलगाम शक्ति है.”
कुछ साल पहले, मद्रास हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश के चंद्रू ने टिप्पणी की थी कि संसद जल्द ही सरकार के लिए रबर स्टांप बन जाएगी, वहां बिना किसी बहस के विधेयक पारित हो जाएंगे.
पिछले कुछ सालों में संसद में महत्वपूर्ण व्यवधान हुए हैं, कई कानून बिना ज्यादा बहस के पारित हो गए हैं. वहीं सांसदों ने यह भी चिंता जताई है कि कई विधेयकों को चर्चा के लिए स्थायी समितियों में नहीं भेजा जा रहा है.