19 फरवरी 2024। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ का 37वां दिन था। 2019 में अमेठी से चुनाव हारने के लंबे अरसे बाद राहुल यहां पहुंचे थे। इसी बीच स्मृति ईरानी ने राहुल को चुनौती देते हुए कहा, ‘2019 में राहुल ने अमेठी को छोड़ दिया था, आज अमेठी ने उन्हें छोड़ दिया है। अगर उन्हें भरोसा है तो बिना वायनाड गए अमेठी से चुनाव लड़ के देखिए।’
इससे पहले और बाद में स्मृति ईरानी लगातार राहुल को अमेठी से चुनाव लड़ने की चुनौती देती रहीं। सोनिया गांधी के राज्यसभा जाने के बाद रायबरेली सीट भी खाली हो गई। अमेठी और रायबरेली दोनों सीट पर कांग्रेस ने ‘राजनीतिक चुप्पी’ साधे रखी। आखिरी मौके पर राहुल गांधी ने रायबरेली से नामांकन किया और अमेठी से कांग्रेस ने गांधी परिवार के बेहद करीबी किशोरी लाल शर्मा को प्रत्याशी बनाया।
इन दोनों सीटों पर कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत लगी दी। प्रियंका गांधी 6 मई से लगातार इन दोनों सीटों पर कैंप करती रहीं। 9 मई से दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अशोक गहलोत और भूपेश बघेल अपनी पूरी टीम के साथ यहां डट गए। राहुल ने 6 सभाएं कीं। सोनिया गांधी ने इकलौती रैली रायबरेली में की।
2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने पहली सूची में 15 उम्मीदवारों के नाम थे। इनमें अमेठी और रायबरेली दोनों सीटों पर क्रमशः राहुल और सोनिया के नाम की भी घोषणा की गई थी। वहीं 2024 के चुनाव के लिए कांग्रेस ने 8 मार्च को 39 उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची जारी की। इसमें राहुल गांधी को वायनाड सीट से उम्मीदवार बनाया गया। 3 अप्रैल को उन्होंने वायनाड सीट से नामांकन भी दाखिल कर दिया।
इसके बाद कांग्रेस ने एक के बाद एक उम्मीदवारों की 12 सूचियां जारी कीं, लेकिन आखिरी समय तक अमेठी और रायबरेली की सीट पर प्रत्याशियों का ऐलान नहीं किया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक महीने से ज्यादा समय तक अमेठी और रायबरेली पर निर्णय न लेने को कांग्रेस के नेता ‘रणनीतिक चुप्पी’ बता रहे थे।
पार्टी के नेताओं का कहना था कि अमेठी और रायबरेली में नामांकन की तारीख 3 मई है, इसलिए अभी फैसले में काफी समय है। जबकि दिलचस्प बात ये है कि पार्टी महाराजगंज, देवरिया, बांसगांव और वाराणसी जैसी कई सीटों पर पहले ही प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी थी, जबकि इन सीटों पर आखिरी चरण में 1 जून को मतदान होना है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक, असल में राहुल और प्रियंका दोनों शुरुआत से ही चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। कांग्रेस के बड़े नेता नहीं चाहते थे कि प्रियंका और राहुल दोनों एक साथ चुनाव लड़ें, क्योंकि सोनिया पहले से ही राज्यसभा सांसद हैं, और अगर राहुल और प्रियंका दोनों जीत जाते हैं तो संसद में परिवार के तीन सदस्य होने से भाजपा को कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाने का नया मौका मिल जाएगा।
चुनाव न लड़ने के पीछे राहुल का तर्क ये था कि अगर वह रायबरेली से जीत भी गए तो भी वह वायनाड सीट नहीं छोड़ेंगे। केरल के 2026 के विधानसभा चुनाव में भी राहुल के वायनाड सीट छोड़ने का बुरा असर पड़ने का डर था।
इसके बाद प्रियंका से रायबरेली से चुनाव लड़ने को कहा गया, पार्टी का मानना था कि हिंदी पट्टी के राज्य में गांधी परिवार की दावेदारी न होने से गलत राजनीतिक संदेश जाएगा। ऐसे में जब प्रियंका ने भी चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया, तो राहुल को चुनाव न लड़ने की जिद छोड़कर रायबरेली सीट के लिए हामी भरनी पड़ी।
कई हफ्तों तक जारी रहे सस्पेंस के बाद 3 मई को अमेठी और रायबरेली सीट पर नामांकन के आखिरी दिन कांग्रेस ने अमेठी से किशोरीलाल शर्मा और रायबरेली से राहुल गांधी के नाम का ऐलान किया। हालांकि, प्रियंका के चुनाव न लड़ने पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि वह पार्टी के लिए पूंजी हैं, उन्हें एक ही सीट पर व्यस्त नहीं किया जा सकता। खड़गे ने कहा कि चुनाव न लड़ने का निर्णय उनका अपना था, हम उनकी राय का सम्मान करते हैं।
राहुल के रायबरेली से चुनाव लड़ने की खबर आने के बाद 3 मई को PM मोदी ने कहा, ‘उनकी (राहुल की) हार तय है, किसी जनमत सर्वे की जरूरत नहीं है। मैंने पहले ही कहा था कि कांग्रेस के सबसे बड़े नेता चुनाव से भागेंगे। वे (सोनिया) भागकर राजस्थान से राज्यसभा के पिछले दरवाजे से संसद पहुंचीं। वायनाड में भी शहजादे (राहुल) चुनाव हारेंगे और इसलिए वो दूसरी सीट की तलाश करेंगे। अब वो अमेठी में लड़ने से डर रहे हैं, रायबरेली भाग गए हैं। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि डरो मत, भागो मत।’
रायबरेली और अमेठी में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने डेरा डाल दिया
3 मई को राहुल ने नामांकन किया और 6 मई को प्रियंका गांधी यहां आकर डट गईं। कांग्रेस ने दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी अमेठी और रायबरेली का पर्यवेक्षक बनाकर भेजने का निर्देश जारी किया। 9 मई को राजस्थान के पूर्व CM अशोक गहलोत अमेठी और छत्तीसगढ़ के पूर्व CM भूपेश बघेल रायबरेली पहुंचे।
गहलोत को कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक माना जाता है। गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने उन्हें गुजरात का प्रभारी बनाया था। उनकी अगुआई में पार्टी ने गुजरात में BJP को कड़ी टक्कर दी थी।
इस बार अशोक गहलोत मार्च महीने से लगातार राजस्थान में डटे थे। वहां कांग्रेस प्रत्याशियों के समर्थन में लगातार रैलियां और जनसभाएं कर रहे थे। कांग्रेस ने गहलोत को 2 मई के बाद से 3 राज्यों- गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार की कमान संभालने की भी जिम्मेदारी दी थी, लेकिन 9 मई को अशोक गहलोत अमेठी पहुंच गए।
इसके पहले तक गहलोत ने राजस्थान में दो चरणों में 25 सीटों पर हुए मतदान के लिए 22 लोकसभा सीटों पर 50 से ज्यादा जनसभाएं कीं। करीब 10 प्रत्याशियों के नामांकन में शामिल रहे। इसके अलावा मई महीने की शुरुआत से अशोक ने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में भी कई जनसभाओं को संबोधित किया। बंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद में भी उन्होंने कांग्रेस की कई रैलियों में हिस्सा लिया और पार्टी का प्रचार किया।
अशोक गहलोत के चुनावी कार्यक्रमों की पूरी लिस्ट हमारे पास है, जिसके अनुसार 16 मार्च से 18 मई तक उनकी यात्राओं और कार्यक्रमों का ब्योरा दिया है-
भूपेश बघेल खुद छत्तीसगढ़ की राजनंदगांव सीट से प्रत्याशी हैं। छत्तीसगढ़ की सभी 11 लोकसभा सीटों पर 7 मई तक तीन चरणों में वोटिंग पूरी हो गई थी। बघेल की अपनी सीट पर 26 अप्रैल को वोटिंग थी। 9 मई को उन्हें आब्जर्वर बनाकर रायबरेली भेज दिया गया। इससे पहले तक भूपेश बघेल ने अपनी सीट राजनंदगांव में कई कार्यक्रम किए थे, साथ ही अलग-अलग राज्यों में कई जनसभाएं कीं थी।
इसी तरह प्रियंका गांधी भी 6 मई को रायबरेली पहुंचीं। इसी दिन बता दिया गया कि वह 18 मई तक रायबरेली रहकर अमेठी और रायबरेली के चुनाव प्रचार की कमान संभालेंगीं। प्रियंका आखिरी दिन तक लगातार इन दोनों सीटों पर चुनाव प्रचार में व्यस्त रहीं। इस बीच बस एक दिन 11 मई को प्रियंका ने तेलंगाना और महाराष्ट्र में एक-एक रैली की, जबकि अमेठी और रायबरेली में कुल 7 बड़ी रैलियां कीं। जबकि इससे पहले चुनाव के ऐलान, यानी 16 मार्च के बाद से अब तक प्रियंका ने 9 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली में 20 बड़ी रैलियां की थीं। रायबरेली कांग्रेस के जिलाध्यक्ष पंकज तिवारी बताते हैं कि प्रियंका गांधी ने रायबरेली लोकसभा सीट के तहत आने वाली हर विधानसभा में हर दिन 17 से 18 जगहों पर कार्यक्रम किए।
वहीं 31 मार्च से 23 मई तक राहुल गांधी ने पूरे देश में कुल 60 रैलियां की हैं। राहुल ने रायबरेली और अमेठी में कुल 6 रैलियां कीं। रायबरेली कांग्रेस के जिला अध्यक्ष पंकज तिवारी बताते हैं कि राहुल गांधी 13 मई को रायबरेली आए थे। उन्होंने यहां 4 बड़ी जनसभाएं कीं। उसके बाद 17 मई को अमेठी और रायबरेली में दो बड़ी जनसभाएं कीं। इन दोनों जनसभाओं में उनके साथ सपा के मुखिया अखिलेश यादव भी रहे। रायबरेली सदर की जनसभा में सबसे ज्यादा भीड़ जुटी थी।
सोनिया गांधी ने 17 मई को सिर्फ एक रैली रायबरेली के आईटीआई मैदान में की। मंच पर उनके साथ राहुल और प्रियंका भी मौजूद थे। सोनिया ने कहा, ‘मैं आपको अपना बेटा सौंप रही हूं। मुझे जो कुछ भी मिला वह आपके प्यार और समर्थन की वजह से है। राहुल भी आपको निराश नहीं करेंगे।’
गांधी परिवार और दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा कांग्रेस ने कई और दिग्गज नेताओं को भी रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रचार के लिए बुलाया। हमें रायबरेली में कांग्रेस के नेताओं के कार्यक्रम की एक लिस्ट मिली। इसके अनुसार, 15 मई को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और हिमाचल प्रदेश के CM सुक्खू के कई कार्यक्रम हुए। इसके अलावा 14 मई को हिमाचल प्रदेश के डिप्टी CM मुकेश अग्निहोत्री और राजस्थान के पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने भी कई जगहों पर रैलियां कीं। वहीं 16 मई को इमरान प्रतापगढ़ी की भी एक रैली हुई।
क्या अमेठी, रायबरेली में फंसकर कांग्रेस का नुकसान हुआ?
उत्तर प्रदेश BJP के महामंत्री संजय राय कहते हैं कि राहुल सिर्फ इसलिए रायबरेली से चुनाव लड़े क्योंकि उन्हें डर था कि कांग्रेस दक्षिण भारत तक सीमित हो चुकी पार्टी कही जाने लगेगी। स्मृति ईरानी की चुनौती के बाद कांग्रेस को अपने पूरे संसाधन और दिग्गज नेताओं को अमेठी और रायबरेली में लगाना पड़ा। इससे उन्हें बाकी राज्यों और लोकसभा सीटों पर नुकसान हुआ है।
संजय राय के मुताबिक न सिर्फ राहुल और प्रियंका अमेठी और रायबरेली में जमे रहे, बल्कि कांग्रेस के इतिहास में ये पहली बार था कि जब राहुल गांधी मतदान के दिन बूथ-बूथ घूम रहे थे। अमेठी सीट पर BJP एक से डेढ़ लाख मतों से जीतेगी। हालांकि, संजय ये मानते हैं कि रायबरेली सीट पर कांग्रेस ने अच्छी टक्कर दी है और BJP यहां करीब 50 हजार मतों से हार सकती है।
रायबरेली के कांग्रेस अध्यक्ष पंकज तिवारी कहते हैं, ‘जैसे 2019 का लोकसभा चुनाव हुआ, उसी तरह इस बार भी प्रचार किया। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इसके पहले विधानसभा चुनावों में भी इसी तरह अमेठी और रायबरेली में प्रचार किया था।’
अमेठी और रायबरेली पर ओवर फोकस करने से कांग्रेस को फायदा या नुकसान, इस पर एक्सपर्ट्स की मिली जुली राय है…
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘अमेठी और रायबरेली पर आखिर में निर्णय लेना कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। राजनीति में कई बार आखिरी समय पर निर्णय लिए जाते हैं। यह कहना गलत होगा कि BJP नेताओं के बयान और हार के डर से कांग्रेस ने अमेठी और रायबरेली में आखिरी समय में प्रत्याशी तय किए।’
विजय उदाहरण देते हुए कहते हैं कि 1984 में इंदिरा के देहांत के बाद का दौर था। अटल को ग्वालियर सीट से चुनाव लड़ना था। उन्हें माधवराव सिंधिया ने आश्वासन दिया था कि वह उनके खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेंगे, लेकिन ऐन मौके पर माधव राव सिंधिया ने नामांकन कर दिया और अटल चुनाव हार गए।
इसी तरह 1999 में कर्नाटक की बेल्लारी लोकसभा सीट पर सोनिया गांधी के खिलाफ अचानक सुषमा को चुनाव मैदान में उतार दिया गया था। इस चुनाव पर पूरे देश की निगाहें थीं। हालांकि, सोनिया चुनाव जीत गई थीं, लेकिन इस चुनाव में सुषमा ने सोनिया को कड़ी टक्कर दी थी।
विजय के मुताबिक ऐसा संभव है कि अमेठी और रायबरेली में दो पूर्व मुख्यमंत्रियों और प्रियंका गांधी के लगातार बने रहने से बाकी सीटों पर कांग्रेस कुछ कम प्रचार कर पाई हो। हालांकि, जिस तरह वाराणसी की सीट BJP के लिए प्रतिष्ठा का विषय है उसी तरह अमेठी और रायबरेली की सीटें कांग्रेस की प्रतिष्ठा से जुड़ी हैं। अशोक गहलोत और भूपेश बघेल, आलाकमान के प्रति निष्ठा के भाव से इन सीटों पर प्रचार करने गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे कहते हैं, ‘अमेठी में कांग्रेस के प्रत्याशी केएल शर्मा कमजोर नहीं लड़े। BJP के कार्यकर्ताओं के अलावा मैंने अमेठी में यह नहीं सुना कि राहुल गांधी हार रहे हैं। उल्टा अमेठी में राहुल की बजाय केएल शर्मा के लड़ने से स्मृति ईरानी का महत्व कम हो गया है।’
अभय दुबे के मुताबिक, ‘यह कहना एक गलत राजनीतिक समीक्षा होगी कि दूसरे दल के नेताओं के बयानों से घबराकर कोई पार्टी चुनावी निर्णय लेती है। महत्वपूर्ण सीटों पर राजनीतिक दल ज्यादा महत्व देते ही हैं।’
अभय दुबे आगे कहते हैं, ‘अगर यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने BJP के नेताओं के बयानों से घबराकर अमेठी और रायबरेली पर ज्यादा समय और ऊर्जा खर्च की, तो वाराणसी सीट पर भी सवाल किया जाना चाहिए। PM मोदी को कौन सी घबराहट थी जो वहां BJP के सभी दिग्गज नेताओं के कार्यक्रम रखे गए।’
क्या UP में अस्तित्व बचाने का संकट ने कांग्रेस को मजबूर किया?
उत्तर प्रदेश देश का वह राज्य है जिसमें न सिर्फ सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं, बल्कि देश के आम चुनावों के इतिहास में भी इसका दबदबा रहा है। उत्तर प्रदेश ने अब तक 9 प्रधानमंत्री दिए हैं। उस उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हिस्सेदारी लोकसभा की सिर्फ एक सीट और विधानसभा की 403 में से सिर्फ 2 विधायकों तक सीमित रह गई है।
2024 के आम चुनावों में अपनी दोनों परंपरागत सीटें यानी अमेठी और रायबरेली बचाने के अलावा कांग्रेस के लिए अपना अस्तित्व बचाने की भी चुनौती है। उस पर संकट ये कि कांग्रेस के पास BJP की तुलना में बेहद कमजोर संगठन है। संसाधन भी उतने नहीं हैं।