सियासी आंधी ने उड़ाए सबके तंबू, कोई यहां गिरा…कोई वहां गिरा

रांची, दूरदर्शन का मशहूर धारावाहिक उल्टा-पुल्टा आपको याद होगा। उसके सूत्रधार जसपाल भट्टी अगर आज होते तो झारखंड की मौजूदा राजनीति पर एक पूरी सिरीज जरूर बना डालते। महज एक से डेढ़ माह में क्या कुछ नहीं देखा यहां की राजनीति ने, वाकई सबकुछ उल्टा-पुल्टा की तर्ज पर। साथ चलने वाले दोस्त आमने-सामने आकर ताल ठोकने लगे। दल बदलने का ऐसा ट्रेंड चला कि भगवा झंडा ढोने वाला शख्स कांग्रेस में औऱ कांग्रेस की दशकों तक राजनीति करने वाला भाजपा में। सबकुछ बेहतर संभावना की आस में। दलों के नारे तक दब गए चुनावी शोर में, रोटी, कपड़ा, मकान की बात तो छोडि़ए। एक के बाद एक चरण का चुनाव जैसे-जैसे निपट रहा है झारखंड में, वैसे-वैसे तल्खी भी बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि क्या राजनीति अवसरवादिता से ज्यादा कुछ नहीं? क्या विचारधारा बीते दिनों की बात हो चुकी है?सियासी उलटफेर को करीब से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक मधुकर कहते हैं- दौर-ए-इलेक्शन में कहां कोई इंसान नजर आता है, कोई हिन्दू , कोई दलित, तो कोई मुसलमान नजर आता है। बीत जाता है जब इलाकों में इलेक्शन का दौर…तब हर शख्स रोटी के लिए परेशान नजर आता है।

छूट गए साथ चलने वाले, फिर मिलने की छोड़ी गुंजाइश

सालों से झारखंड की राजनीति में भाजपा और आजसू पार्टी साझीदार थे। आजसू कोटे से एक मंत्री भी भाजपानीत गठबंधन सरकार में था। दोनों के बीच चुनावी तालमेल पर बात आगे बढ़ती, इससे पहले ही गठबंधन की नैया डगमगाने लगी। आजसू ने 17 सीटें मांगी तो भाजपा ने ठेंगा दिखा दिया। बिदके आजसू प्रमुख सुदेश महतो ने इससे ठीक तीन गुना ज्यादा सीटें यानी 51 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए। भाजपा को इससे होने वाले नुकसान का आभास थोड़ी देर से हुआ, जिसे रणनीतिक तौर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहते हुए संभाला कि चुनाव के बाद आजसू उनके साथ होगी। फिर गले मिलने के रास्ते दोनों दलों ने बंद नहीं किए। यानी दुश्मनी इतनी ही कि मौका मिले तो दोस्ती की गुंजाइश भी बाकी रहे। तभी तो भाजपा ने आजसू प्रमुख सुदेश महतो के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारा तो आजसू ने भी मुख्यमंत्री रघुवर दास की सीट पर उम्मीदवार नहीं दिया।

राजनीतिक विश्लेषक रवि प्रकाश कुछ इस तरह मौजूदा माहौल को आंकते हैैं – सियासत में दलों का बदलना स्वाभाविक है, लेकिन झारखंड सरीखे अपेक्षाकृत छोटे राज्य में यह प्रवृति तेजी से पनपी है। दरअसल मुद्दों के प्रति ऐसी उदासीनता बिरले ही दिखती है। इस परिस्थिति में भाजपा अपने स्थायी मुद्दों के प्रति ज्यादा इमानदार दिखती है लेकिन उन सवालों पर कांग्रेस की गंभीरता नहीं दिखती जो आम लोगों और उनसे जुड़े रहे समूह के लिए आवश्यक है। ऐसे में सबसे ज्यादा भागदौड़ उस दल में मचना आश्चर्य पैदा नहीं करता है।

कपड़ों की तरह दल बदले नेताओं ने

भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी अपनी पसंदीदा सीट संताल परगना के बोरियो से फिर चुनाव लडऩा चाहते थे। उनकी मंशा जब सफल नहीं हुई तो वे झारखंड मुक्ति मोर्चा में शामिल हो गए। वहां भी जब दाल नहीं गली तो दूसरे दिन वे आजसू के दफ्तर में यह कहते हुए नजर आए कि इसी दल से उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा है। दरअसल इस दफे झारखंड के चुनावी समर में योद्धाओं का पाला बदलना इस कदर हुआ कि सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए। विधानसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक रहे राधाकृष्ण किशोर आजसू के हो गए। कांग्रेस विधायक दल के पूर्व नेता मनोज कुमार यादव अब झारखंड की एंट्री प्वाइंट बरही सीट पर भाजपा का झंडा थामे खड़े हैं।  वैसे इस राजनीतिक उठापटक में सबसे ज्यादा झटके कांग्रेस को लगे। कांग्रेस ने तीन पूर्व प्रदेश अध्यक्ष खोए। अमेरिका रिटर्न कुणाल षाडंगी झारखंड मुक्ति मोर्चा का फ्रेश चेहरा थे, लेकिन उन्होंने चुनाव की घोषणा के ठीक पहले भाजपा में जाना ज्यादा सुरक्षित समझा। ऐसी उछलकूद मची कि भाजपा के प्रत्याशी कांग्रेस के टिकट पर खम ठोकते नजर आए तो खांटी कांग्रेसियों ने जयश्रीराम के नारे लगाए।

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