कमीशन के चक्कर में बस्तो के बोझ से दबे स्कूली बच्चे।

फतेहपुर। न्यूज़ वाणी नफीस जाफ़री वर्तमान शिक्षा पद्धति में तेजी से हुए बदलाव ने बच्चों की पीठ पर लदने वाले बस्ते का वजन खासा बढ़ा दिया है। तेजी से शिक्षा में हुए बदलाव के कारण बच्चों की किताबों की संख्या के साथ उनके बस्तों का भार 15 से 20 किग्रा तक पहुंच गया है। इससे बच्चों को शिक्षा पहाड़ सी लगने लगी है जबकि इस बदलाव से स्कूलों को काफी फायदा हो रहा है। उन्हें बुक सेलरों से मोटा कमीशन मिलता है।
यदि गौर किया करें तो यह महसूस होगा कि स्कूल जाने वाले नन्हें-मुन्नों की पीठ पर लदा बस्ते का वजन क्या होगा तो वह उनकी झुकती कमर से पता चल जाएगा। दो दशक पूर्व की शिक्षा पर गौर किया जाये तो याद आयेगा कि उस समय जब बच्चे विद्यालय जाते थे तो उनके चेहरे खिले होते थे और उनकी कमसिन उम्र वाली शरारतें देख कर कोई अपना दिल बहला लिया करता था। उनको अपने कंधे पर लदे स्कूली बैग की कोई फिक्र ही नही हुआ करती थी। गिनती की चार पांच किताबें और कुछ कापियां उनमें रख वह बड़े आराम से अपना रास्ता काट लेते थे। धीरे-धीरे वक्त गुजरा और उनकी शिक्षा में बदलाव आया। वह बच्चे जो पहले चार छः किताबों को बस्ते में रखकर अपने घर से स्कूल तक का सफर हंसते खेलते गुजार लेते थे। रास्तों में उनकी अटखेलियां भी खूब हो जाती थी, लेकिन पाठ्यक्रम में तेजी से आये बदलाव ने उनकी इस मुस्कान को पूरी तरह से छीन लिया है। खिलौने के समान लगने वाला बैग आज उनको बोझ लगने लगा है। घर से स्कूल तक उसे अपनी पीठ पर लादकर ले जाने में उनको काफी दिक्कते होने लगी है। इन बैगों का वजन कराया जाये तो पन्द्रह से बीस किलो से कम नही होगा। अब जरा सोचियें कि कम उम्र में यह बच्चे इस वजन को किस तरह अपनी पीठ पर लादे घुमते हैं। उनकी आधी ऊर्जा रास्ते में समाप्त हो जाती है। रही बात क्लास में पढ़ाई करने की उसमे भी यह बच्चे कहीं न कहीं रास्ते में हुई थकान को महसूस करते हैं। आये दिन स्कूलों में होने वाले टेस्ट के चलते वह अपनी किताब व कापियों को घरों में रखकर नही आ सकते। किताबों का बढ़ता बोझ नन्हें-मुन्नों बच्चों को शिक्षा से दूर करता जा रहा है।
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