विरोध का तरीका शालीन और मर्यादा के दायरे में होना चाहिए

 जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पिछले लगभग दो-तीन माह से निरंतर चर्चा में है। पिछले दिनों कुछ नकाबपोश लोगों के विश्वविद्यालय परिसर में घुसकर छात्रों के साथ मारपीट करने की खबर आई और उसके बाद से इस मामले में बवाल मचा हुआ है। इसके लिए एबीवीपी और वामपंथी छात्र संगठनों से लेकर राजनीतिक दलों के बीच तक आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। हालांकि इस बारे में पुलिस की जांच जारी है, फिर भी यह विडंबना ही है कि देश का यह विश्वविद्यालय अपनी अकादमिक उपलब्धियों के कारण कम, बेमतलब विवादों के कारण अधिक चर्चा में रहता है।

पीड़ित और पीड़क का निर्णय कर लिया है

बहरहाल, पुलिस ने अपनी आरंभिक जांच में नकाबपोश उपद्रवियों की पहचान करने का दावा जरूर किया है, लेकिन इस मामले में अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। लेकिन सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक छात्रों के प्रति समर्थन व्यक्त करने में जुटे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों का रवैया किसी न्यायाधीश की तरह प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने पीड़ित और पीड़क का निर्णय कर लिया है और उसी के आधार पर अभियान चलाने में लगे हैं।

राष्ट्रवादी’ शब्द का प्रयोग किस आधार पर कर रहे हैं?

बुद्धिजीवियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे बेहद शालीनता से किसी मामले पर विरोध प्रदर्शन करेंगे, लेकिन नरेंद्र मोदी जिस दल और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके प्रति इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों का विरोध घृणा के स्तर तक जा पहुंचा है, जिसका प्रकटीकरण इनकी भाषा से लेकर कुतर्कों तक में देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर लेखक और शायर जावेद अख्तर ने जेएनयू छात्र संघ अध्यक्षा आईशी घोष के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी पर तंज करते हुए ट्वीट किया कि ‘जेएनयूएसयू अध्यक्ष के खिलाफ एफआइआर पूरी तरह से समझ में आती है। उसने अपने सिर से एक राष्ट्रवादी, देश प्रेमी लोहे की छड़ को रोकने की हिम्मत कैसे की।’ सवाल यह है कि जावेद अख्तर इसमें ‘राष्ट्रवादी’ शब्द का प्रयोग किस आधार पर कर रहे हैं?

वैचारिक असहिष्णुता 

अभी जब इस हमले की जांच चल रही है, ऐसे में वे कैसे कह सकते हैं कि हमला राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों ने किया है। ऐसी क्या अधीरता है जो वे जांच पूरी होने तक का इंतजार करने की बजाय खुद ही दोषी तय करने में लगे हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए जब इनके पुत्र फरहान अख्तर सीएए के विरोध में सड़क पर उतर पड़े थे, लेकिन जब पूछा गया कि क्यों विरोध कर रहे हैं तो बगलें झांकने लगे और कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाए। ऐसे में यही प्रतीत होता है कि इन लोगों के विरोध के पीछे कोई व्यावहारिक आधार नहीं, केवल और केवल वैचारिक असहिष्णुता है। यह असहिष्णुता फिल्म जगत से जुड़े तमाम और लोगों में भी है और इस कदर है कि वे प्रधानमंत्री के प्रति तू-तड़ाक की भाषा के इस्तेमाल करने पर तक उतर चुके हैं।

बुद्धिजीवी वर्ग का यही असहिष्णु चरित्र 

इससे पूर्व सीएए के विरोध के दौरान भी हमें बुद्धिजीवी वर्ग का यही असहिष्णु चरित्र दिखाई दिया था। बीते दिनों केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राष्ट्रीय इतिहास कांग्रेस में अपना वक्तव्य देते हुए सीएए का जिक्र करना शुरू किया तो वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब बौखला गए और राज्यपाल को रोकने के लिए बढ़ने लगे। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का कहना था कि अगर उनके एडीसी ने नहीं रोका होता तो ये उन पर हमला कर देते। जो व्यक्ति राज्यपाल के प्रति सार्वजनिक रूप से इतनी आक्रामकता दिखा सकता है उसमें विपरीत विचारों के लिए कितनी असहिष्णुता होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।

आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल 

इन बुद्धिजीवियों की असहिष्णुता का एक और उदाहरण पिछले वर्ष तब भी दिखा जब जेएनयू में बतौर प्रोफेसर एमिरेट्स जुड़ीं रोमिला थापर विश्वविद्यालय प्रशासन के बायोडाटा मांगने पर बिगड़ गईं। इसे वामपंथियों ने सरकार द्वारा बुद्धिजीवियों को दबाने की कोशिश करार दिया। आखिर यह कैसी बुद्धिजीविता है जो मन से दंभ और असहिष्णुता को खत्म नहीं कर सकी। इतना ही नहीं, अपने अंधविरोध में इन बुद्धिजीवियों की भाषा का स्तर भी एकदम सतही होता जा रहा है। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के दौरान ही लेखिका अरुंधती राय दिल्ली विश्वविद्यालय के एक विरोध प्रदर्शन में छात्रों के बीच पहुंचीं। वहां उन्होंने कहा कि एनपीआर में जब नाम-पता पूछा जाए तो वे रंगा-बिल्ला और सात रेसकोर्स बताएं। उनका इशारा नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरफ था। अरुंधती राय को बताना चाहिए कि देश की जनता द्वारा बहुमत से निर्वाचित प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के प्रति इस तरह की आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करके कौन-सी बौद्धिकता का परिचय दिया है?

एकसूत्रीय एजेंडे को हवा देने की कोशिश

आश्चर्य है कि इसके बाद भी ये लोग कहते फिरते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है और सरकार तानाशाही कर रही है। रामचंद्र गुहा, अमत्र्य सेन से लेकर साहित्य जगत के भी अनेक नाम हैं जो वर्ष 2014 के बाद से सत्ता-विरोध की आड़ में किसी न किसी बहाने से अपने मोदी विरोध के एकसूत्रीय एजेंडे को हवा देने की कोशिश में लगे रहते हैं। बुद्धिजीवी होने का अर्थ होता है कि आप की बौद्धिक चेतना किसी भी तरह के पूर्वाग्रह और वैचारिक संकीर्णता से मुक्त, बुद्धि और ज्ञान के विस्तृत धरातल पर प्रतिष्ठित हो। बुद्धिजीवियों से अपेक्षा की जाती है कि वे देश को दिशा दिखाएंगे।

इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं

लेकिन क्या हमारे इन बुद्धिजीवियों से ऐसी कोई अपेक्षा की जा सकती है। एक आयातित विचारधारा के संकीर्ण दायरे में बैठकर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने दूसरी विचारधारा को निशाने पर लेने को ही अपना शगल बना लिया है। विपरीत विचार के विरोध में ये घृणा के स्तर तक जा पहुंचते हैं, लेकिन जब उसी स्वर में इनका प्रतिवाद होता है तो तानाशाही और अभिव्यक्ति की आजादी का विलाप भी करने लगते हैं। इनकी सारी बौद्धिकता केवल एक विचारधारा का विरोध करने मात्र के लिए समर्पित लगती है, उसके अलावा इन्हें देश में कोई और समस्या व चुनौती नहीं नजर आती। इनकी इस हालत पर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की यह पंक्ति बिल्कुल सटीक लगती है : इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।

 

 

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