[राहुल लाल]। बीएसएनएल और एमटीएनएल के पुनरुत्थान के लिए घोषित 69,000 करोड़ रुपये की योजना को क्रियान्वित करने के लिए एक सात सदस्यीय उच्चस्तरीय मंत्री समूह का गठन किया गया है। इस उच्चस्तरीय मंत्री समूह में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान शामिल हैं। यह मंत्री समूह बीएसएनएल और एमटीएनएल के पुनरुद्धार को लेकर हाल में किए गए निर्णयों को तेजी से लागू करेगा। दोनों कंपनियों की क्षमता का आकलन करने, वीआरएस के जरिये कर्मचारियों की संख्या सीमित करने, बॉन्ड जारी करने, परिसंपत्तियों का मौद्रीकरण तथा 4जी स्पेक्ट्रम के आवंटन जैसे कई महत्वपूर्ण विषयों पर यह उच्चस्तरीय मंत्री समूह विचार करेगा।
इन दोनों सरकारी कंपनियों के विलय तथा पैकेज का निर्णय ऐसे समय में किया गया है, जब पानी सिर से ऊपर गुजर चुका है। हो सकता है कि इससे निजी कंपनियों को कुछ प्रतिस्पर्धी मिल जाएं और उन्हें ग्राहकों को सुविधा बढ़ानी पड़े, लेकिन विलय के बाद बनी नई सरकारी कंपनी कितने समय तक टिक पाएगी? यह कहना मुश्किल है। विशेषज्ञों के अनुसार यह काम काफी पहले होना चाहिए था।
एमटीएनएल बीएसएनएल की सहायक
सरकार ने बीते अक्टूबर में बीएसएनएल और एमटीएनएल के विलय तथा 69,000 करोड़ के पैकेज की मंजूरी दी थी। विलय प्रक्रिया पूरी होने तक एमटीएनएल प्रमुख दूरसंचार कंपनी बीएसएनएल की सहायक के रूप में काम करेगी। इस पैकेज में दोनों कंपनियों की तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए 15,000 करोड़ के सरकारी बॉन्ड, 4जी स्पेक्ट्रम के लिए 20,140 करोड़ रुपये, कर्मचारियों के वीआरएस के लिए 29,937 करोड़ रुपये और जीएसटी के तौर पर 3,674 करोड़ रुपये की राशि दिया जाना शामिल है।
पिछले कुछ सप्ताह के दौरान दोनों सरकारी कंपनियों ने अपने यहां स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) को लागू कर दिया है, जिसके तहत लगभग 92,700 कर्मचारियों ने वीआरएस लेने के लिए आवेदन किया है। इससे कर्ज में डूबी दोनों कंपनियों के वेतन बिल में सालाना 8,800 करोड़ रुपये की बचत होने की संभावना है। इसके अलावा दोनों कंपनियों की परिसंपत्तियों के मौद्रीकरण के परिणामस्वरूप अगले तीन वर्षों में लगभग 37,500 करोड़ रुपये प्राप्त होने के आसार हैं।
डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकॉम (डीऑटी) से बीएसएनएल का जन्म एक अक्टूबर 2000 में हुआ। इसमें भारत सरकार की 100 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। एमटीएनएल मुंबई और दिल्ली में ऑपरेट करती थी, जबकि शेष देश में बीएसएनएल की मौजूदगी है। 19 अक्टूबर 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बीएसएनएल मोबाइल सेवा शुरू की थी। बीएसएनएल ने इनकमिंग को मुफ्त किया और आउटगोइंग कॉल्स की कीमत को भी काफी कम किया। बीएसएनएल मोबाइल सेवा लॉन्च होने के डेढ़ साल के भीतर देश की नंबर वन मोबाइल सेवा बन गई। वर्ष 2002 से 2005 बीएसएनएल का स्वर्णिम काल था जब हर कोई इसका सिम चाहता था।
सरकारी हस्तक्षेप से परेशान बीएसएनएल
बीएसएनएल की वर्तमान स्थिति की शुरुआत वर्ष 2006- 2012 के वक्त में ही देखा जा सकता है। यह वह वक्त था, जब मोबाइल सेगमेंट में जबरस्त उछाल था, लेकिन बीएसएनएल लालफीताशाही और सरकारी अनिर्णय की स्थिति में फंसी थी। वर्ष 2006-07 में बीएसएनएल की कुल आय 40,000 करोड़ रुपये थी और शुद्ध मुनाफा आठ हजार करोड़ रुपये थी। वर्ष 2007-08 के बाद से ही कंपनी मुश्किल में आ गई और अगले कुछ वर्षों में यह घाटे में चली गई। वित्त वर्ष 2012 में कंपनी को 9,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। निजी कंपनियां जहां हर फैसले तुरंत ले लेती थीं, सरकारी कंपनी होने के कारण बीएसएनएल के लिए टेंडर की प्रक्रिया पूरा होने में महीनों लग जाते थे। उस वक्त भारत में 22 करोड़ मोबाइल ग्राहकों में बीएसएनएल की बाजार में हिस्सेदारी करीब 22 प्रतिशत थी।
वर्ष 2010 में 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी हुई जिसमें सरकारी कंपनी होने के कारण बीएसएनएल ने हिस्सा नहीं लिया। बीएसएनएल को पूरे देश के लिए स्पेक्ट्रम तो मिले, लेकिन जिस दाम पर निजी कंपनियों ने नीलामी में स्पेक्ट्रम खरीदे थे, बीएसएनएल से भी कहा गया कि वो भी वही दाम दे। साथ ही बीएसएनएल को वायरलैस तकनीक पर आधारित ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस (बीडब्लूए) स्पेक्ट्रम के लिए भी भारी रकम देनी पड़ी। इसका असर भी बीएसएनएल और एमटीएनएल पर पड़ा। बीएसएनएल ने इस 3जी नीलामी में 17 हजार करोड़ रुपये खर्च किए, जिससे उसका खजाना खाली हो गया, जबकि एमटीएनएल को तो कर्ज लेना पड़ा, जिसे चुकाने के लिए उसे 100 करोड़ रुपये महीना देना पड़ता था।
दोनों के विलय का प्रभाव
कई विशेषज्ञ मान रहे हैं कि दोनों कंपनियों का विलय और वीआरएस इस बात का संकेत है कि साल दो साल बाद इस संयुक्त इकाई को निजी हाथों में बेच दिया जाएगा। सरकार हरसंभव कोशिश करेगी कि विलय के बाद बीएसएनएल छोटी, चुस्त और मुनाफेदार हो जाए, जिससे इसके अच्छे दाम मिल जाएं। लेकिन स्वयं दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना है कि इन दोनों कंपनियों को रिवाइव करेंगे। उनके अनुसार, देश में जरूरत और आपदा के समय ये सरकारी कंपनियां ही काम आती हैं।
एकाधिकार से सुरक्षा
कुछ साल पहले टेलीकॉम के हर सर्किल में लगभग नौ-दस कंपनियां थीं। सितंबर 2016 अर्थात रिलाइंस जियो के शुरू होने के बाद हालात बिल्कुल बदल गए। आज हर सर्किल में सिर्फ तीन निजी और एक सरकारी मोबाइल ऑपरेटर ही है- जियो, वोडाफोन-आइडिया, एयरटेल और बीएसएनएल/ एमटीएनएल। ऐसे हालात में अगर सरकारी कंपनी बंद हो जाती है, या निजी हाथों में चली जाती है, तो इस क्षेत्र में एकाधिकार की आशंकाएं पैदा हो जाती हैं। वर्ष 2014 से 2017 बीएसएनएल के लिए थोड़ी उम्मीद का दौर था जब बीएसएनएल ने ‘ऑपरेटिंग मुनाफे’ कमाए और प्रधानमंत्री मोदी ने लाल कीले की प्राचीर से इसका जिक्र किया। वर्ष 2014-15 में बीएसएनएल का ऑपरेटिंग मुनाफा 67 करोड़ रुपये, वर्ष 2015-16 में दो हजार करोड़ रुपये और वर्ष 2016-17 में 2,500 करोड़ रुपये था।
4जी स्पेक्ट्रम से दूरी से नुकसान
यह भी आरोप लगाए जाते हैं कि निजी कंपनियों ने अपने राजनीतिक रसूख का प्रयोग कर ऐसी नीतियां बनवाई, जिससे बीएसएनएल एवं एमटीएनएल का भारी नुकसान हुआ। जब 2016 में 4जी स्पेक्ट्रम की नीलामी हुई, तो दोनों सरकारी कंपनियों को इससे बाहर रखा गया। बीएसएनएल के प्रबंधन ने इस बारे में सरकार का ध्यान खींचने के लिए 17 से अधिक पत्र लिखे, लेकिन चीजें नहीं बदली। इनकी हालत खराब होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्हें 4जी स्पेक्ट्रम नहीं दिया गया। कई आलोचकों का यह कहना है कि सरकार नहीं चाहती कि ये कंपनियां निजी ऑपरेटर्स के साथ मुकाबला कर सकें।
बहरहाल कुप्रबंधन, नीतिगत देरी और सरकारी दखल का बीएसएनएल और एमटीएनएल ज्वलंत उदाहरण है। बीएसएनएल की बाजार हिस्सेदारी महज 11.5 प्रतिशत फीसदी रह गई है। टेक्नोलॉजी अपग्रेड में पीछे रहने के कारण कंपनी कपनी क्षमता का विस्तार भी नहीं कर पाई। बीएसएनएल को ऐसा माहौल दिया जाना चाहिए, ताकि वो निजी कंपनियों के साथ मुकाबला कर सके।
अगर बीएसएनएल को बचाना है, तो उसे कार्य करने में स्वतंत्रता देनी होगी। इसके विस्तार को लेकर होने वाले खर्च के प्रस्ताव सरकार के पास लंबे समय तक बिना किसी फैसले के क्यों लटके रहते हैं? बीएसएनएल के साथ एमटीएनएल के विलय का मतलब यह होगा कि बीएसएनएल देश भर में नेटवर्क इस्तेमाल के आधार पर अपनी सेवाओं का विस्तार कर सकती है। इसका कर्ज निजी क्षेत्र की तुलना में कम है।
उदाहरण के लिए लैंडलाइन और फाइबर सेवाओं में एमटीएनएल बेहतर कर सकती है। दोनों के विलय से एक मजबूत इकाई बनेगी, क्योंकि दोनों के पास काफी संपत्तियां हैं और टीम के रूप में काम करने के लिए संसाधन हैं। टेलीकॉम जगत में अब माहौल गलाकाट प्रतिस्पर्धा का है। ऐसे में बीएसएनएल के लिए तमाम पैकेजों के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए रखना आसान नहीं होगा। इसलिए बीएसएनएल के प्रबंधन और सरकार दोनों के लिए यह आवश्यक है कि वह इसके रिवाइवल को गंभीरता से लें, नहीं तो ग्रामीण क्षेत्र में डिजिटल इंडिया का कार्यक्रम अधूरा ही रह जाएगा।
डिजिटल इंडिया का सपना साकार करने के लिए आवश्यक
ग्रामीण भारत के कई हिस्सों में सेवाएं देना घाटे का सौदा है। बीएसएनएल के अधिकार क्षेत्र में 193 बड़े एक्सचेंज हैं, जिसमें 140 से ज्यादा तो बिजली का बिल चुकाने जितनी राशि भी नहीं जुटा पाते। शहरी एक्सचेंजों की कमाई से कुछ हद तक इस घाटे को बीएसएनएल कम करती है। निजी ऑपरेटर्स इतनी दरियादिली नहीं दिखांएगे। इंग्लैंड में भी इसीलिए ब्रिटिश टेलीकॉम के सरकारीकरण की मांग हो रही है। बीएसएनएल का बने रहना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि आज भी देश में करोड़ों ऐसे ग्राहक हैं, जो 2जी सेवाओं का प्रयोग कर रहे हैं।
बीएसएनएल की स्थापना में निहित सामाजिक सारोकार उन ग्राहकों को इंटरनेट की सुविधाओं से जोड़ सकता है और इसके लिए धन की समस्या नहीं है। यूनिवर्सल सर्विस ऑब्लिगेशन फंड (यूएसओएफ) के तहत डीओटी के पास लगभग 55 हजार करोड़ रुपये पड़े हैं, जो उसे बीएसएनएल को ग्रामीण इलाकों के संचार के विकास हेतु देना था। इसी तरह एक और टैक्स था जो निजी ऑपरेटर से लेकर बीएसएनएल को सभी को देना था। इसका नाम था- एक्सेस डेफिसिट चार्ज या एडीसी। कुछ वर्ष पूर्व ट्राई ने इसे बंद करते हुए कहा कि इसके बदले यूएसओएफ की राशि बीएसएनएल को दी जाए, पर अब तक ऐसा हो नहीं पाया। अगर यह धन भी बीएसएनएल को मिल जाएं, तो वह आसानी से अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा कर सकती है।
बीएसएनएल की ताकत
चाहे यूपीए सरकार हो या एनडीए सरकार, किसी ने भी बीएसएनएल पर ध्यान नहीं दिया। उल्टे सरकार ने कुछ ऐसे निर्णय लिए जिससे इस कंपनी को नुकसान उठाना पड़ा। इसमें 4जी स्पेक्ट्रम के आवंटन मामले में देरी ने तो दोनों कंपनियों को डुबा दिया। इन सबके बावजूद बीएसएनएल के पास अभी भी देश के अलगअलग जगहों में जमीन है, जिसकी कीमत एक लाख करोड़ रुपये के आसपास है। करीब 20 हजार करोड़ के टावर्स हैं और 64 हजार करोड़ रुपये के ऑप्टिकल फाइबर्स हैं, जिनकी लंबाई करीब आठ लाख किमी है। भारत जैसे देश में एक पब्लिक सेक्टर ऑपरेटर की जरूरत है, ताकि बाजार में एक सरकारी संस्था की उपस्थिति रहे और संतुलन बना रहे।