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दिखाई देते हैं रौज़े हुसैन के घर-घर, यज़ीद तेरा तो एक टूटा मज़ार भी नहीं

– मुहर्रम पर जगह-जगह जारी शहादतनामा और करबला का बयान

प्रेमनगर, फतेहपुर। सुल्तानपुर घोष में करबला की शहादत पर रौशनी डालने के लिए मुफ्ती अशफ़ाक़ आलम इलाहाबादी इस्लाम के हवाले से लगातार तक़रीर कर के भाई चारे का पैग़ाम दे रहे हैं और मोहम्मद साहब के नवासों के बताए हुवे रास्तों पर चलने का पैग़ाम देते हुवे करबला के शहीदों पर रौशनी डाल रहे हैं और बता रहे हैं कि करबला की जंग में मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हसन और इमाम हुसैन ने जो इंसानियत का पैग़ाम दिया है अगर आज सारे लोग उस पर अमल करें तो सारी फ़साद की जड़ें कमज़ोर पड़ जाएंगी। आज से चौदह सौ साल पहले करबला में इमाम हुसैन अपने बहत्तर साथियों के साथ दाखिल हुवे वहां लोगों से पूछा कि इस जगह को क्या कहते हैं लोगों ने बताया कि इस जगह का नाम करबला है, इमाम हुसैन ने अपने साथियों से कहा कि ये वही जगह है जहां मुझे शहीद किया जाएगा मैं चाहता हूं कि किसी दूसरे की ज़मीन पर मेरी शहादत न हो इसलिए इस ज़मीन के मालिक को बुलाओ और इसकी क़ीमत अदा करो। बनी असद के कबीले वालों को बुलाकर करबला की ज़मीन को साठ हज़ार दिरहम में खरीदी गई और ज़मीन अली अकबर के नाम पर लिखाई गई। कितना बलंद किरदार था हुसैन का जिन्होंने दूसरे की ज़मीन पर जंग करना भी मुनासिब नहीं समझा फिर भी यज़ीद ने मोहम्मद साहब के नवासों को तीन दिनों तक भूखा प्यासा शहीद किया। ये घटना 570 ई० की है जब अरब की सर ज़मी पर दरिंदगी अपनी चरम सीमा पर थी तब अल्लाह ने एक संदेश वाहक (पैगंबर) को भेजा जिसने अरब की ज़मीन को दरिंदगी से निजात दिलाई और निराकार ईश्वर (अल्लाह) का परिचय देने के बाद मनुष्यों को ईश्वर का संदेश पहुंचाया जो कि अल्लाह का दीन है इसको इस्लाम का नाम दिया गया और दीन केवल मुसलमानों के लिए नहीं आया वो सभी के लिए था क्योंकि बुनियादी रूप से दीन (इस्लाम) में अच्छे कार्यों का मार्गदर्शन किया गया और बुरे कार्यों से बचने व रोकने के तरीके बताए गए हैं। उस समय का बना हुआ खलीफा यज़ीद चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं वो जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा, लाख दबाव के बाद भी इमाम हुसैन ने यज़ीद की बात मानने से इनकार कर दिया तो यज़ीद ने इमाम हुसैन को क़त्ल करने की योजना बनाई। 4 मई 680 ई० में इमाम हुसैन अपना मदीने से अपना घर छोड़ कर शहर मक्का पहुंचे जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उनको पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आ कर उनको क़त्ल कर सकता है। हुसैन नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पाक जगह पर खून बहे। करबला की जंग हक़ और बातिल की जंग थी। जहां एक तरफ़ मोहम्मद का नवासा था जो अपने नाना के दीन को बचाना चाहता था और दूसरी तरफ़ यज़ीद जैसा बद किरदार इंसान था जो दीने इस्लाम को मिटाना चाहता था। यज़ीद के पास लाखों की फौज थी और हुसैन के पास सिर्फ बहत्तर साथी थे जो पाक दामन थे और यजीदी फौज में शराब पीने वाले थे। इस जंग में इमाम हुसैन ने अपने बहत्तर साथियों के साथ करबला की जंग को जीत कर इस्लाम का परचम लहरा दिया जो कयामत तक लहराता रहेगा।

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